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एक तवायफ की दास्तान

कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है--ये जवानी मेरी तस्वीर नज़र आती है !!


                    
                                                         हमने सोचा न था हालात कुछ ऐसे होंगे !
                                                        हम जिन्हें अपना समझते थे पराये होंगे !!
                                                         अपनी  दुनिया में अँधेरे ही अँधेरे होंगे !
                                                       रहके महफ़िल में भी हम इतने अकेले होंगे !!

 


हर तरफ रंज की तदबीर नज़र आती है ---कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है !!


                      
                                                       चन्द लम्हों के लिए लाश को जिंदा करके !
                                                      अपनी दौलत से मेरे जिस्म का सौदा करके!! 
                                                        मेरी इज्ज़त का सरे आम तमाशा करके !
                                                    क्या मिला तुमको भरी बज़्म में रुसवा करके !!

 


अपनी पायल मुझे ज़ंजीर नज़र आती है----कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है !!




                                                यूँ न घुट घुट के जिया करती न उलझन होती !
                                                      मेरा अरमान था के मै भी  सुहागन होती !!
                                                        मेरे चेहरे पे पड़ी शर्म की चिलमन होती !
                                                       कोई जो अक्स मेरा होता मै दरपन होती !!

 

आज ख्वाबों की न ताबीर नज़र आती है -- कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है !!

 

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Comment

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Comment by D.P.Mishra on November 25, 2011 at 7:03pm

shandar ......

Comment by Hilal Badayuni on November 13, 2011 at 10:17pm

shukriya vikram sahab.... aapne is lekhni ko naman kiya hai to mera b aapki muhabbato ko naman hai jisse aapne nawaza hai

Comment by Vikram Srivastava on November 12, 2011 at 1:19pm

इस सुंदर रचना को पढ़के वाह !! और आह !!  दोनों ही स्वतः मुंह से निकाल गया .........आपकी की लेखनी को नमन है :)

Comment by Hilal Badayuni on November 6, 2011 at 7:11pm

shukriya rohit ji aapne apne ta assurat diye is kalam par...

Comment by Rohit Sharma on November 6, 2011 at 11:08am

ये तवायफ कौन है ? हमारा ही एक अंग जिससे हम दिन में नफरत करते है और रात के अंधेर में प्यार. पर हम आम्रपाली के दिवानों के जैसे न तो उससे नफरत ही कर सकते हैं और न उससे प्यार ही कर सकते हैं, खून बहाना और अपना बना लेना तो दूर की कौरी है, जिसके बारे में हम सोचना भी गवारा नहीं करते. शायद इस कमी को पाटा जाना चाहिए.

Comment by Hilal Badayuni on November 2, 2011 at 3:43pm

 

bahut bahut shukriya aadarniya sampadak ji

bahut achcha laga aapne haunsla afzai farmayi...aapka behad behad shukriya..

actually ye geet maine kafi time pehle ravi kumar guru ji k kehne pe likha tha jisme unhone theme de thi k ek majboor tawayaf...ittefaq se unki team ko pasand nahi aa paya ..

chaliye aap sabhi ne muhabbat se nawaza...........iska shukrguzar hu..........bahut bahut...

Comment by Hilal Badayuni on November 2, 2011 at 2:54pm

shukriya saurabh pandey ji aapka jo aapne in bhavo ko samjha

behad shukrguzar hu aapka


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 2, 2011 at 2:20pm

विवशता, उत्तरदायित्त्व, वातावरण और मनोदशा के साथ-साथ सामाजिक विडंबनाओं का प्रतिफल अपने होने का कारण ढूँढती दीख रही है, जिसके प्रच्छवास से निकलती आह को स्पष्ट सुना जा सकता है.  उस अवश की मनोदशा का बेहतर चित्रण हुआ है..  एक बेहतर शब्द-चित्र !

शुभेच्छा हिलालजी ..


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 2, 2011 at 10:17am

//अपनी पायल मुझे ज़ंजीर नज़र आती है----कितनी बदली हुई तकदीर नज़र आती है !!//

 

यह एक पंक्ति पूरे हालत को बयान कर रही है, बहुत खूब हिलाल जी !


Comment by Hilal Badayuni on November 1, 2011 at 11:54pm

bahut bahut shukriya ambrish ji aapne b dil khush kar diya itni muhabbat bhari daad se mujhe nawaz ker 

behad behad shukriya 

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