महाकवि जानकी वल्लभ शास्त्री की याद
संस्मरण 0 श्याम बिहारी श्यामल
पता नहीं आज का हमारा नया नेटी और फेसबुकिया समाज, जिसके सामने स्क्रीन पर अथाह ज्ञान-गंगा अविरल बह रही है, हमारे कैशोर्य काल के अनुभव-विवरणों को किस रूप में ग्रहण करे! संभव है उसे अचरज- अविश्वास भी हो कि अब से महज कोई तीन दशक पहले 1981-82 में हमारे साहित्य-सरोकार का आरम्भ-काल आज की पीढ़ी की तुलना में बड़ा दयनीय था. हमें कोई भी इच्छित जानकारी एक क्लिक के साथ पलक झपकते हाजिर नहीं हो जाती थी! ऑनलाइन संपर्क भी चुटकी बजाते मुमकिन नहीं था! किसी भी श्रद्धा या स्नेह-पात्र से संपर्क करने के लिए हफ्तों बेचैनी के साथ इंतजार करना पड़ता था. पत्रिकाएं स्टालों पर आती होंगी लेकिन हमें उपलब्ध न थीं. हमारा युवा मन कोर्स की किताबों से ही अपने भाषा-साहित्य का मानचित्र-भूगोल गढ़ रहा था.
उस समय बिहार में दैनिक ‘आर्यावर्त’ बड़ा लोकप्रिय हिन्दी अखबार था. इसकी लोकप्रियता को ध्येय करके एक व्यंग्य-कथन प्रचलित था- ‘...बिहार में सुबह-सुबह गली- सड़कों पर मवेशी भी जो चबाते हैं, वह दैनिक आर्यावर्त होता है’.
हमारे शहर यानि डाल्टनगंज, जिसे झारखंड अलग राज्य बनने के बाद अब मेदिनीनगर नाम दे दिया गया है, में भी दैनिक ‘आर्यावर्त’ के ढेरों बंडल आते थे. रेलवे स्टेशन के पास कोयला पांडेय के घर के पास निर्मल सिंह ( बिहार के अपने समय के सबसे बड़े पेपर एजेंट बाबू रामध्यान सिंह के पुत्र, जिनके परिवार में अब से कुछ साल पहले धनबाद में मेरे बड़े साढ़ू प्रेमचंद सिंह की बेटी नीतू की शादी हुई ) की एजेंसी का दफ्तर था. किसी अन्य दिन तो नहीं, रविवार को मैं अहले सुबह वहां पहुंचने का प्रयास करता. लक्ष्य होता यथाशीघ्र उसका रविवासरीय परिशिष्ट देखना.
छपाई का स्तर आज के अखबारों के मुकाबले तो बेशक काफी दयनीय ही कहेंगे किंतु तबके हिसाब से परिशिष्ट भरसक सजावटी पन्नों वाला होता. 26 जनवरी, 15 अगस्त और होली-दीवाली पर इसके कई पृष्ठ बढ़े हुए होते. हालांकि पन्नों पर विज्ञापन ही लपकते-लपलपाते अधिक दिखते किंतु स्वाभाविक रूप से रचनाएं कुछ अधिक मिल जातीं.
पहले ही पन्ने पर सजाकर मोटी लकीर वाले बॉक्स में हर बार एक खास कविता छपी होती. किसी न किसी वरिष्ठ रचनाकार अर्थात् जाने-सुने हुए नाम की. हम कोर्स की किताब में पढ़े अपने रचनाकारों को यहां व्यग्रता से खोजते. अक्सर आरसी बाबू तो दिख जाते जबकि जानकीवल्लभ शास्त्री कभी-कभार ही. ज्यादा छपने वालों में रामावतार अरुण और मार्कण्डेय प्रवासी के नाम याद आ रहे हैं. कविता के अंत में कवि का हस्ताक्षर होता जिसे देखकर हमें कुछ ‘अतिरिक्त या अति विशिष्ट पाने’ जैसा, प्रसन्नता से भरा अनुभव अर्जित होता.
आरसी बाबू का हस्ताक्षर लगभग सुवाच्य होता. ‘आ’ को लपेटते और ‘र’ व ‘सी’ से गांथते-नाथते हुए बुना होने के बावजूद पूरा नाम पढ़ने में आ जाता. इसके विपरीत ‘जानकी वल्लभ शास्त्री’ लिखित हस्ताक्षर जरा- वरा नहीं, बल्कि बहुत अधिक संष्लिश्ट होता. पेंच-ओ-खम से भरा. इसे कई-कई बार पीछे लौट-लौटकर दिमाग से खोदना-खोलना पड़ता. सिग्नेचर बाकायदा ‘ज’ के अर्द्धशून्य से शुरू होता. इसका आकार भी पुष्ट. बाद के सारे तमाम वर्ण व मात्राओं को खींचते-सोंटते हुए सभी अक्षरों के अंकन में एकदम मनमुताबिक, कलात्मक और सधा हुआ प्रयोग. अंत में ‘शास्त्री’ की अंतिम मात्रा यानि ‘त्री’ का तो बाकायदा फणसहित उर्ध्व सर्पाकार-रूप में ही अंकन. यानि यह हस्ताक्षर कुछ ऐसा कि किसी को यदि उनकी संज्ञा पूर्वज्ञात न हो तो उसके लिए तत्काल यह जान पाना सर्वथा कठिन ही होता कि हस्ताक्षरित नाम है क्या!
तब की हमारी सोच-समझ में दोनों महाकवियों की कविताओं की ग्राह्यता-बोधगम्यता का हिसाब भी कुछ इसी या ऐसे ही अनुपात-क्रम में बैठता था. आरसी बाबू की कविता पढ़कर पेपर का पेज तत्काल कहीं इत्मीनान से रख दिया जा सकता था, जबकि शास्त्री जी की कविता वाला पन्ना हाथ में झूलता फिरता. कई-कई दिनों तक गींजा जाता रहता. मैट्रिक में केदारनाथ मिश्र प्रभात की कविता ‘किसको नमन करूं मैं’ पढ़ी थी जबकि कॉलेज से पहले हमें नागार्जुन की कविता के दर्शन नहीं हुए थे, शायद इसीलिए उनके प्रति उस कोमल-काल में कोई जिज्ञासा नहीं जन्मी. लिहाजा पहले तीनों नामों के प्रति गहरा आकर्षण था.
कवि-परिचय में उल्लेखित पुस्तकों के नाम कागज पर उतारकर इन्हें भरसक खोजने का भी प्रयास चलाता, लेकिन जो आज भी सहज उपलब्ध नहीं, वो तब कहां कहीं दिख पातीं. आज के परिदृश्य से तुलना करते हुए यही तो अफसोस हो रहा है कि साधन नहीं, संपर्क-तकनीक और साहित्य-सामग्री उपलब्धता की दृष्टि से भी हमारे वे शुरुआती दिन कैसे दयनीय-दरिद्र थे!
बहुत बाद में अभ्युदय हिन्दी साहित्य समाज पुस्तकालय का सदस्य बना तो इच्छित ढेरों पुस्तकों को देखने, छूने और बांचने का अनोखा सुख पा सका. तो, शुरू से ही मैं साहित्यकारों को खूब पोस्ट कार्ड भेजने लगा था. कोई कवि हो कथाकार, मैं पत्र सबको कविता में ही लिखता. पढ़ी हुई रचना की चर्चा, अपनी कच्ची-पकी प्रतिक्रिया और कोमल भावनाएं... सबकुछ पद्य में. उछाह के साथ प्रतिदिन ऐसे कम से कम आधा दर्जन पत्र भेजना और डाकिये की व्यग्र प्रतीक्षा करते हुए लगभग इतने ही प्राप्त करना! जिस दिन पोस्टऑफिस की बंदी होती, वह बड़ा मनहूस बीतता. यह क्रम वर्षों चला.
उसी दौरान आरसी प्रसाद सिंह, हरिवंशराय बच्चन, अमृत राय, विष्णु प्रभाकर, विमल मित्र, भीष्म साहनी, गुलाम रब्बानी ताबां, योगेश कुमार आदि जैसों से भी पत्र-संपर्क संभव हुआ. कुछ के हस्तलेख देखकर अद्भुत तृप्ति की अनुभूति होती. अकेले में ऐसे पत्र लेकर बैठता और घंटों निहारता-छूता और गदगद् होता रहता. अब यह याद नहीं कि शास्त्री जी का पता कहां से मिला, तुरंत एक पत्र उन्हें भी लिख भेजा छंदोबद्ध कविता में ही. कुछ ही दिनों बाद उस समय खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब अचानक उनका दो पन्ने का हस्तलिखित जवाब हाथ में आ गया! आश्चर्य तो यह कि उन्होंने मुझे कोई बड़ा-वयस्क समझदार व्यक्ति भांपते हुए मेरे बारे में जानकारी मांगी थी कि मैं कौन हूं और यहां यानि पलामू में क्या करता हूं आदि-आदि. जवाब भेजने में देर करने का तो सवाल ही नहीं था किंतु अब उनके दर्शन की लालसा उमड़ रही थी. उस दौर में बिहार में विद्यमान हिन्दी के तीन महाकवियों में आरसी बाबू और प्रभात जी से भी मैं उसी व्यग्रता से मिलने गया और उम्र में दोनों ही शास्त्री जी से बड़े थे किंतु आज भी मुझे लगता है कि सर्वाधिक साहित्यिक तृप्ति जानकी वल्लभ जी से ही मुलाकात में मिली थी.
हर साल गर्मियों में पिताजी के साथ डाल्टनगंज (पलामू) से गांव यानि सिताबदियारा जाना तय होता. पटना होकर छपरा और फिर रिविलगंज पहुंचकर नाव से सरयू नदी पार करके दियारा का बालुका- विस्तार नापते-धांगते हुए गांव.
डायरी-वायरी में कुछ अंकित करते चलने का स्वभाव तो आज तक नहीं बन सका लिहाजा ठीक-ठीक तिथि आदि याद कर पाना कठिन है किंतु वह वर्ष शायद 1981-82 ही था. मैं 16-17 का हो रहा था. एकाध दिन आगे-पीछे गांव से मुझे अकेले पलामू लौटने की अनुमति मिल गयी थी. मैंने छपरा से पटना नहीं, मुजफ्फरपुर की बस पकड़ ली.
मुजफ्फरपुर क्या, किसी भी अन्य शहर में मैं पहली ही बार अकेले जा रहा था. वहां के बस पड़ाव पर उतरकर चिंता हुई. दरअसल, उनका पता बहुत छोटा था- ‘निराला निकेतन, चतुर्भुज स्थान’! किंतु चमत्कार-सा तब महसूस हुआ जब वहीं किसी को कागज दिखाकर पूछ बैठा. वह तुरंत रास्ता बताने लगा. रिक्शा ले लिया. आगे बढ़ने के क्रम में आदतन जिन अन्य एक-दो व्यक्तियों से शास्त्री जी का नाम लेते हुए ‘चतुर्भुज स्थान में निराला निकेतन’ पूछा, वे सजगता और अतिरिक्त सम्मान से भरकर ताकने लगते. बहुत अपनापे के साथ विस्तार से समझाने लगते कि चतुर्भुज मंदिर के पास पहुंचकर फिर कैसे आगे बढ़ना और किस ओर हमें मुड़ना-बढ़ना है.
इलाके में पहुंचने के दौरान घरों के दरवाजों पर दिखते नर्तकियों के नेमप्लेट्स और दृश्य-माहौल से यह समझ में भी आने लगा था कि यह कैसा क्षेत्र हो सकता है. एक खास तरह का भय भी छूता रहा. यदि लौटते हुए अंधेरा हो जाये और रिक्शा न मिले तो बहुत परेशानी हो सकती है. मन ही मन निश्चय करता रहा कि अभी तो दोपहर का समय है, तीन-चार घंटे आराम से रुकने का मौका मिल ही जायेगा. सतर्कतापूर्वक सूर्यास्त से पहले उठ जाऊंगा. खैर, तो वहां पहुंचने में रिक्शावाले को कोई दिक्कत नहीं हुई.
बड़ा-सा गेट और विस्तृत परिसर! यह सब देख पहले थोड़ी झिझक हुई किंतु यह कुछ ही देर में खत्म हो गयी. परिसर के किसी छात्र-निवासी ने मुझे श्रीमती छाया देवी यानि श्रीमती शास्त्री से मिलवा दिया. उन्होंने भीतर जाकर ज्योंही मेरा नाम-पता बताया, शास्त्री जी ने वहीं से ऐसी तेज हांक लगायी, जैसे मुझे वर्षों से जानते-पहचानते हों. मैं सामने पहुंचा तो मेरी कृशकाया और कम उम्री देख वह चकित रह गये! सोच में पड़ गये कि मैं इतनी दूर से यहां अकेले क्यों और कैसे आ गया! वह पत्नी को ‘बड़े भाई’ कहकर संबोधित करते. बोले, ‘‘...बड़े भाई! यह बच्चा कविता-प्रेम में खिंचा यहां आ तो गया, अब इसे सकुशल इसके घर कैसे भिजवाऊं ? ’’ उन्होंने हंसकर ही किंतु कुछ झुंझलाहट के साथ उन्हें अनावश्यक ऐसी चिंता न करने की सलाह दी और मेरे समझदार होने का भरोसा भी.
मेरा सारा वृतांत सुनने-जानने के बाद उन्होंने आदेश दिया कि लंबी यात्रा है, लिहाजा मैं आज नहीं बल्कि कल लौटूं. मेरा छोटा-सा कपड़े का बैग ऊपर के कमरे में भिजवा दिया गया. यह कमरा भी साधारण कोठरी नहीं, बड़ा-सा एकदम हॉलनुमा. लगभग पुस्तकालय जैसा रख- रखाव. आलमारी में छायावाद युग और बाद का पूरा समय-सत्य दस्तावेज -रूप में सुरक्षित-संरक्षित.
शायद दूसरे ही दिन शास्त्री जी उठकर गये और एक थाक को लाकर खोला तो सामने निराला की चिट्ठियां फैल गयीं. मन के तार झंकृत हो उठे. आंखों में आनंद, हृदय में हर्ष और मस्तिष्क में मृदुल तरंगें! महाप्राण की लिपि-लिखावट को इस तरह पास से देखना ही नहीं बल्कि छू पाना भी और इस रूप में उनकी आंशिक उपस्थिति को प्रत्यक्ष महसूस करना... सचमुच अद्भुत आह्लादकारी! कभी किसी पोटली से मैथिलीशरण गुप्त, तो किन्हीं से सुमित्रानंदन पंत, बनारसीदास चतुर्वेदी, माखनलाल चतुर्वेदी, मुकुटधर पांडेय, अज्ञेय आदि के पत्र. इस क्रम में पृथ्वीराज कपूर के पत्र-चित्रादि देखने का अनुभव इसलिए विशिष्ट लगा क्योंकि मैंने कुछ ही समय पहले पुस्तकालय से लाकर उनकी वृहत् पुस्तक ‘नाट्य सम्राट’ देख-पढ़ रखी थी जिसमें यह सारी चीजें शामिल थीं. उसी में पृथ्वीराज के साथ महाप्राण निराला की वह तस्वीर भी थी जिसमें दोनों खड़े हमकदों की वार्तालाप-मुद्रा थी. इसके नीचे छपे चित्र-परिचय के अक्षर तक मुझे आज भी याद हैं और इनका स्मरण-आलाप अब भी वैसे ही आनंद-सपंदन से भर रहा है- ‘नाट्य-सम्राट और साहित्य-सम्राट’.
दूसरी या तीसरी मुलाकात में ऐसे ही किसी थाक में अज्ञेय जी का एक वह पत्र भी देखने और हाथ में लेकर पढ़ने का मौका मुझे हाथ लगा था, जो उन्होंने प्रयोगवाद के अपने नये समारंभ के समय बड़े ही आग्रह- अनुनय के साथ सुलेख लिपि में शास्त्री जी को लिखा था. इस पत्र के प्रति मेरा आकर्षण शायद तात्कालिक संदर्भ से उपजा था. दरअसल, उन्हीं दिनों अज्ञेय जी का निधन हुआ था और मैं हाथ में ‘दिनमान’ का अज्ञेय-अंक लेकर निराला निकेतन पहुंचा था. कवर पर कुर्ता-पायजामा पहने अज्ञेय जी का बोर्ड पर लिखते हुए आकर्षक चित्र था. नजर पड़ते ही इसे लेकर शास्त्री जी ने उदासी से भरी खामोशी के साथ एक ही सांस से पूरा उलट-पलट लिया. मैंने एक दुर्लभ अवसर हाथ लगने की प्रसन्नता से भरकर यह अंक उन्हें ‘सादर भेंट’ लिखकर समर्पित किया तो वह इसे पकड़कर मेरी ओर चौंककर ताकने लगे. मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि पटना पहुंचकर मैं रेलवे स्टेशन पर पुनः यह अंक प्राप्त कर लूंगा. उन्होंने जरा संकोच के ही साथ किंतु बिना कुछ बोले इसे स्वीकार किया तो मैं बहुत उत्फुल्ल! संभवतः इसी क्रम में अज्ञेय-विषयक सामग्री वह निकाल लाये थे! बाद की मुलाकातों के भी कई प्रसंग बहुत रोचक और उद्वेलक टिप्पणियों-अनुभवों से भरे हैं किंतु आज उनके निधन का समाचार जानने के बाद पता नहीं क्यों प्रथम-दर्शन का ही पूरा दृश्य-परिदृश्य आंखों के सामने घूम रहा है!
...तो, यह निकेतन नाम का ही नहीं बल्कि सही अर्थों में निराला निकला! गेट के पास से शुरू होकर भीतर दूर तक खिंचती बड़ी-सी भरी- पूरी गोशाला. टन्-टन् की आवाज के साथ गर्दन हिलातीं, नाद पर झुकीं- जिमतीं दर्जनाधिक सुदर्शना उन्नत गौवें. देखभाल में जुटे दो-एक लोग भी. घर में खेलते-फांदते कुते और बिल्लयों के झुंड के झुंड! पूरे घर में उनका स्वतंत्रतापूर्वक विचरण होता. शास्त्री जी की देह पर तो वे बेधड़क खेलते-लोटते दिख ही रहे थे. वह नाम ले-लेकर उन्हें पुकारते और पास आने पर पुचकारते-दुलारते. पता चला, गौवों के भी नाम निर्धारित हैं. यानि वहां शास्त्री जी का महज दो जनों का परिवार नहीं, बल्कि इस रूप में एक पूरा पारिभाषित कुनबा ही आबाद था! रात में अक्सर कोई न कोई ऐसा ही छोटा प्रेमी-जीव मेरी नींद टूट जाने की भी वजह बन जाता. वे सारे आपस में हिले-मिले हुए, भाई-बहनों की तरह. उनके बीच के जैविक या विरादाराना वैमनस्य का जीवविज्ञानी सिद्धांत यहां एकदम सिरे से खारिज होता हुआ साफ-साफ दिख रहा था. सबका खाने-पीने का इंतजाम भी घर के सदस्यों जैसा ही. साथ में ही उन्हें भी नाश्ता और लगभग वही-वही सब खाना-पीना मिलता. वे भी पलंगों पर ही चढ़कर विश्राम करते. मुझे तब अधिक असुविधा होने लगती जब वे एक साथ कई-कई की संख्या में पास आ जाते और सूंघने-छूने को उद्धत हो उठते.
शास्त्री जी संस्कृत के आचार्य, किंतु दिनचर्या सर्वथा अपेक्षा के विपरीत. सर्वथा गैर-पंडिताऊ! न स्नान-ध्यान का कोई सख्त नियम- पालन, न पूजा-पाठ का लंबा-चौड़ा क्रम. सुबह-शाम परिसर में घर के सामने ही स्थित पितृमंदिर में पिताश्री की प्रतिमा के आगे एक दीपक रखना और निराला तथा पृथ्वीराज कपूर समेत इसी त्रिमूर्ति का स्मरण-नमन! बस! परिसर में कुते-बिल्लयों और गायों ही नहीं छोटे-बड़े पेड़-पौधों और उन पर पक्षियों का भी एक भरा-पूरा चहचहाता-गाता आबाद संसार. बड़े-से परिसर में सिंचित होतीं क्यारियां, हरी-भरी और फूली-फली हुईं. प्रत्येक की महसूस होने वाली उपस्थिति, सबका बोलता-गूंजता हुआ-सा भाव-प्रभाव. ...और, सबकी प्रत्यक्ष दिनचर्या में शास्त्री जी की सीधी भागीदारी.
तात्पर्य यह कि औरों की तरह वह सिर्फ शब्द-सीमित कवि नहीं रहे. उन्होंने जो कुछ भी चाहा और पसंद किया, उसे शब्दों ही नहीं, अपने जीवन में भी रचा. एक ऐसा कवि जिसे अनेक यादगार रचनाओं के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी कविता को क्षण-क्षण जीने के लिए अलग से याद किया जायेगा. अनोखापन तो यह कि इसके लिए नियति ने उन्हें बाकायदा लंबा अंतराल यानि 95 साल से भी अधिक का समय उपलब्ध कराया. क्या आधुनिक साहित्य के इतिहास में कोई ऐसा दूसरा उदाहरण भी आपके जेहन में है कि किसी कवि ने अपने जीवन को ही कविता बना डाला हो! ऐसा माहौल, ऐसा व्यक्तित्व और ऐसी उपस्थिति फिर कहीं और देखने को नहीं मिले.
मैं पूरी तैयारी में था. वहां नियमित आने वालों में प्राध्यापक राम प्रवेश सिंह और अशोक गुप्ता आदि से तो उसी दौरान जान-पहचान हुई, जबकि पत्रिका ‘दर्शन मंथन’ के संपादक राधे अज्ञानी से पत्रादि के माध्यम से पूर्व परिचय. याद नहीं कि इन्हीं में ये किसी के सहयोग से या कैसे, लेकिन टेपरिकार्डर का इंतजाम वहीं कर लिया. एक अतिरिक्त ब्लैंक कैसेट ले आने के बाद पांच-छह दिनों तक टुकड़े-टुकड़े में उनका इंटरव्यू रिकार्ड करने लगा. बीच-बीच में वह किसी सवाल पर नाराज भी हो जाते किंतु बेरुखी के साथ किसी गैर की तरह नहीं बल्कि घर के बुजुर्ग जैसे! सामने वाले के बचपना पर मुस्कुराते-झुंझलाते हुए-से. जोर से बोलते, ‘‘...बड़े भाई! ...लोग मेरे कंठ से मेरे गीत सुनने को बेचैन रहते हैं ...यह कैसा सिरफिरा बालक आ गया है जो सामने टेपरिकार्डर रख दे रहा है और उल्टे-सीधे सवाल पर सवाल दागे जा रहा है! ’’
छाया देवी सामने आ जातीं. हंसती हुईं. वह कभी मुझे तो कभी उन्हें ताकती रहतीं. यही इंटरव्यू बाद में विषयवार टुकड़ों में बंट-बंटकर कई पत्रिकाओं में छपा. इसका सबसे बड़ा अंश कई साल बाद ‘आजकल’ के ‘बिहार विषेशांक’ में छपा था जिसमें शास्त्री जी ने अपने स्वभाव के अनुरूप विभिन्न सवालों के बहुत बेबाक जवाब दिये थे. चूंकि बातचीत का यह अंश बिहार-केंद्रित था लिहाजा वहां के कई वरिष्ठ रचनाकारों पर भी उनकी दो टूक टिप्पणी थी.
अभी यह आलेख लिखते हुए ‘आजकल’ का वह ‘बिहार विशेषांक’ सामने नहीं है लेकिन महाकवि केदारनाथ मिश्र प्रभात के बारे में शास्त्री जी का एक कथन उन्हीं की आवाज (इंटरव्यू वाला कैसेट किसी प्रिय संगीत- संग्रह की तरह कितनी बार सुना गया है, इसकी गणना करना असंभव है ) में याद आ रहा है- ‘‘...प्रभात जी के साथ विडंबना यह रही कि जब तक उनमें लेखन की क्षमता थी तब तक वह पुलिस विभाग के एक ईमानदार नौकर थे ...इसलिए इस दौरान की उनकी अधिसंख्य रचनाओं में एक प्रकार का बंधन और दबाव व्याप्त है ...जब वे रिटायर हुए और उनकी ऊर्जा- प्रतिभा चूक गयी तो उन्होंने जल्दी-जल्दी में ढेरों रचनाएं कर दीं... यह सब कोर्स में पढ़ाये जाने लायक तो हो सकती हैं किंतु स्तरीय नहीं हैं! ’’
इस इंटरव्यू पर मेरे पास भी काफी पत्र आये थे. इनमें से एक आज भी स्मरण में है. यह इसलिए नहीं क्योंकि इसे लिखने वाले पटना के एक नामी लेखक प्रो.दीनानाथ शरण थे बल्कि इस कारण कि पत्र में उन्होंने शास्त्री जी के किसी कथन पर गहरा रोष जताया था. आक्रोश से भरी भाषा में अपनी प्रतिक्रिया लिखते हुए उन्होंने शास्त्री जी को ‘घमंडी’ तक बताया और खूब गाज-फेन छोड़ा था. याद नहीं, प्रो.शरण को महाकवि प्रभात पर की गयी टिप्पणी ने ही क्रुद्ध किया था या किसी अन्य संदर्भ-बात ने.
इसी इंटरव्यू का संदर्भ देते हुए कई वर्षों बाद रांची में एक समारोह के दौरान पहली ही मुलाकात में प्रख्यात आलोचक-साहित्येतिहासकार डा.रामखेलावन पांडेय (अब स्वर्गीय ) ने मुझे काफी खरी-खोटी सुनाई थी. यह तक कहते हुए कि मैंने ऐसे व्यक्ति का साक्षात्कार ही क्यों लिया जो न तो मौलिक कवि है न कथाकार. दरअसल, यह वही डा. पांडेय हैं जिनकी चर्चित कृति है ‘हिन्दी साहित्य का नया इतिहास’, जो एकीकृत बिहार के जमाने में वहां के विभिन्न विश्वविद्यालयों में दशकों तक पाठ्यक्रम में शामिल रही. यह कृति अपने तीखे दृष्टि-तेवर के कारण आज भी एक ऐसे मौलिक हिन्दी साहित्येतिहास-ग्रंथ के रूप में हमारे सामने है, जिसमें उन्होंने तमाम प्रचलित मान्यताओं-धारणाओं को उलट-पुलट कर रख दिया है.
उदाहरण के लिए डा. पांडेय ने ‘वीरगाथा काल’ का नामकरण ही अस्वीकार कर दिया है. इस तर्क के साथ कि जिस काल की प्रतिनिधि कविता साढ़े तीन हाथ (स्त्री-देह) में घूमती रह गयी हो, वह भला वीरगाथा काल कैसे! इसी ग्रंथ की भूमिका में उन्होंने यह कहा है- इस (इतिहास) में बहुत सारे लोगों (रचनाकारों) को उनके नाम नहीं दिखेंगे, ऐसे लोगों को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि उनका नाम छूट गया होगा बल्कि यह जान लेना चाहिए कि यह छूटा नहीं बल्कि छोड़ दिया गया है. काफी बाद में एक बार मुजफ्फरपुर पहुंचने पर शिकायत पहुंचाने की नीयत से नहीं बल्कि डा. पांडेय से रिश्ते का तापमान-भूगोल जानने के उद्देश्य से मैंने अपने नियंत्रित शब्दों में ही किंतु उनकी प्रतिक्रिया बताई थी. इसके बाद शास्त्री जी ने जो बताया वह चौंकाने वाला था.
वह हंसते हुए कहने लगे कि अपने शुरुआती दौर में डा.पांडेय कुछ समय मुजफ्फरपुर में भी थे और आसपास ही रहते थे. वह नाम बदल-बदलकर कविवर मोहन लाल महतो वियोगी और दिनकर जी से लेकर तमाम अन्य रचनाकारों की बखिया उधेड़ने में जुटे रहते. उन्होंने किसी छात्र को उकसाकर उससे भी शास्त्री जी के खिलाफ एक पत्रिका में लेख लिखवाया-छपाया था. यह प्रसंग जानकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि अब से आधी शताब्दी पहले भी हमारी भाषा और साहित्य का माहौल आज से कोई बहुत भिन्न नहीं रहा होगा. बहरहाल, प्रो शरण की टिप्पणी से मैंने अपनी तरफ से कभी शास्त्री जी को अवगत नहीं कराया. हालांकि इस दौरान मुझे यह पता चल गया था कि वह शास्त्री जी के मुखर निंदकों में सर्वज्ञात व्यक्ति हैं.
यह तो हुए कुछ वे लोग जो उन्हें निशाने पर लेने से बाज नहीं आते थे, जबकि ऐसों की फेहरिश्त काफी बड़ी है जो उन्हें सदा सिर पर ही उठाने के अवसर ढूंढते रहे. निस्संदेह ऐसे लोगों को शास्त्री जी की विरलता और वरिष्ठता का सही-सही संज्ञान था. ऐसे लोगों में साहित्य-प्रक्षेत्र के शब्द-नागरिकों की चर्चा करने लगूं तो यह असमाप्य प्रसंग बन जायेगी. इसलिए यहां राजनीतिक गलियारे से कर्पूरी ठाकुर और सामाजिक सरोकार के इलाके के पूर्व पुलिस उच्चाधिकारी किशोर कुणाल का जिक्र करना जरूरी समझ रहा हूं.
कहना न होगा कि बिहार के कई दफा मुख्यमंत्री रह चुके कर्पूरी ठाकुर हमारी राजनीति की उस लोहियावादी समाजवादी परंपरा की कड़ी थे जिसकी जन्मघूंटी में ही हिन्दी भाषा को लेकर कुछ दृढ़ संकल्प-भाव हमेशा विद्यमान रहे. काफी पहले जब शास्त्री जी अपने ही परिसर में किसी बछड़े की कुलांच से गंभीर रूप से आहत हो गये थे तो इलाज के क्रम में कर्पूरी जी उनके साथ साये की तरह पटना (पीएमसीएच ) से लेकर दिल्ली (एम्स) तक डोलते रहे. उन्होंने अपने चिकित्सक-पुत्र को भी साथ ले रखा था ताकि शास्त्री जी को हर क्षण हर संभव चिकित्सकीय मदद पहुंचती रह सके.
कहा जाता है, एम्स में शास्त्री जी ने हड्डी के ऑपरेशन के दौरान स्वयं को बेहोश न करने का अनुरोध किया था. उन्हीं दिनों उसी अवस्था में लिया गया उनका इंटरव्यू अखबारों में आया था जिसमें उन्होंने कहा था कि अभी वे दुःख का आनंद ले रहे हैं! सुनने में यह बात आज भी अटपटी लग सकती है किंतु इससे किसी को भी यह अनुभूति हो सकती है कि जीवन के प्रति वह ऐसे ही अपना कुछ खास नजरिया अवश्य रखते थे.
किशोर कुणाल सामान्य आईपीएस नहीं रहे. पुलिस कप्तान के रूप में कमोवेश तत्कालीन अविभाजित बिहार के विभिन्न जिलों में उनकी पहचान एक कठोर और सिद्धांतनिष्ठ अधिकारी की कायम हुई थी. ऐसा एसपी जिसके पहुंचते ही वहां के राजनेता असुविधा से भरकर कराहने- दहाड़ने लगते, जबकि कई बार उनके असमय स्थानांतरण पर सीधे जनता को ही उनके पक्ष में मुखर हो उबलते देखा गया. बाद में यही किशोर कुणाल पटना के विख्यात महावीर मंदिर को विराट आकार और ख्याति दिलाने वाले व्यक्ति के रूप में भी जाने गये. यों तो उनकी इतिहास-विषय में गहरी रुचि रही है लेकिन उन्होंने समय आने पर अपना साहित्य-विवेक या भाषा-प्रेम भी साबित किया.
एक बार शास्त्री जी को अस्वस्थता के दौरान पटना में उन्होंने अपनी श्रद्धा-भावना में ऐसा बांध लिया कि वह अपने स्वभाव के विपरीत उनके आवास पर जाने को राजी हो गये और कई दिनों तक वहीं रहकर स्वास्थ्य-लाभ करते रहे. मुजफ्फरपुर में तो इन पंक्तियों के लेखक ने स्वयं अपनी आंखों देखा है कि साहित्य-प्रेमी ही नहीं सामान्य ज्ञान- विवेक रखने वाला हर आम-ओ-खास उन्हें लगभग पूजता ही रहा. इसके विपरीत हमारे साहित्य के व्याख्याकार-ठेकेदार उनके प्रति एकदम उदासीन बने रहे. यह बाकायदा हिन्दी साहित्य का एक शर्मनाक अध्याय है.
विगत करीब तीन दशक से भी अधिक समय से साहित्य का आम पाठक भी यह महसूस करता रहा कि शास्त्री जी जैसे रचनाकार को आलोचना-समालोचना के तंत्र ने कठोर अनदेखी का शिकार बनाये रखा. शास्त्री जी ने जो लिखा है उसे अनदेखा तो कोई कर सकता है लेकिन बेशक मिटा नहीं सकता. इसलिए इतिहास में उनकी जो जगह है वह है और रहेगी, लेकिन उनके साहित्य को बगैर पढ़े अचर्चा के वार से खारिज करने का प्रयास चलाने वाले जिम्मेवार आलोचक बेशक आज समय के कठघरे में खड़े हैं. उजाले में अथाह ऊर्जाशून्यता और अपरिमित उल्टा लटकान-सुख पाने अथवा अंधेरे में अपार सुविधा तथा मनमाना उड़ान- उल्लास से भर जाने वाली हमारी समकालीन आलोचना का चमगादड़-युग आज न कल नियतिवश भी तो ढलेगा ही, तब भावी आलोचक भी बेशक अपने अग्रजों की नीयत और औकात का सही-सही अंदाजा लगा सकेगा.
दुनिया जहां उनके गीतों की दीवानी है, वहीं शुरू से मुझे उनका गद्य गहरे आकर्षित करता रहा. एक-एक वाक्य खास ; सुनारी कला- दक्षता की कढ़ाई-कथा बयान करता हुआ. महाकवि प्रसाद विषयक उनके प्रसिद्ध संस्मरण ‘प्रसाद की याद’ का यह अंश देखिये- ‘‘...जहां धरती और आकाश मिलते हैं उसे क्षितिज कहा जाता है ; जहां काव्य और दर्शन मिलें, उस बिन्दु को ‘प्रसाद’ कहा जाना चाहिए? यों धरती और आकाश कहीं नहीं मिलते ; काव्य की नीलिमा और दर्शन की पीतिमा ने नीर-क्षीर की तरह घुल-मिलकर प्रसाद की हरियाली उपजा ली थी! किंतु काव्य और दर्शन परस्पर विरोधी कहां हैं ? क्या प्रसाद का कवि मूलतः भोगी था, जिसे योगी बनाते-बनाते वह टूट गये ? क्या प्रसाद का मन विशुद्ध सौन्दर्योपासक था, जिसे कल्याणी करुणा और समरसता न पची और वह बिखर गया? प्रसाद के गन्धर्व-सुन्दर तन को शिव का मृत्युंजय मन रास नहीं आया ?...’’ इसी में आगे की एक यह भाषा-बानगी- ‘‘...विश्वप्रकृति की लीला अद्भुत है. कौन कह सकता है कि मिट्टी की परतों के नीचे दबे हुए एक छोटे से छोटे बीज की भी वह किस तत्परता से रक्षा करती है ; कैसे उसे अंकुरित होने, बिरवे के रूप में नरम धरती में जड़ें मजबूत करने का अवसर देती है. फूल वसंत की प्रतीक्षा करते थकता कहां है ?
...आखिर 10.09.35 को वह अवसर भी आया. स्वयं निराला जी मुझे प्रसाद जी से मिलाने ले आये. अस्सी पर वाजपेयी जी के यहां ठहरे हुए थे, मेरे साथ पहले पं. विनोदशंकर व्यास के घर पहुंचे मंदिर-मस्जिद दिखलाते हुए, मतगयन्द गति से सरायगोवर्द्धन-प्रसाद जी के पास ले आये. व्यास जी तब तक वहां पहुंच चुके थे. ...डेढ़ टके लिबास में मैं बड़े-बड़ों के बीच धंसा पड़ता था, थान का टर्रा होना मुझे भाता न था, विवशता थी. प्रसाद जी को हर बार राजसी ठाट में ही टकटक देखा था, ओंठ तक न हिला रहा था कि इस अनदेखी झांकी ने मेरी हीनता हर ली.
आज उन्हें देखकर शंकर के संबंध में कालिदास की उक्ति स्मृति में कौंध गयी: ‘न विश्क्मूर्तेरवधार्यते वपूः’! इस घड़ी वह एक गाढ़े की लुंगी और उसी कपड़े की एक आधी बांह की गंजी जिससे रुद्राक्ष झांकता हुआ-सा और काठ की चट्टी पहने हुए गुलाब, सोनजुही, बेला, रजनीगंधा और मुकुलित मालती के कुंज में सिंचाईं के झरने के साथ विचर रहे थे. अप्रत्याशित रूप में निराला को उपस्थित देख स-संभ्रम बारादरी में आ गये. जैसे कपास के गोले को हवा के झीने झकोरे ने गंध की उंगलियों से भरपूर छू दिया हो ; जैसे हरी-हरी पत्तियों के झूमर से किसी फूल के दिये की लौ झिलमिला उठी हो, मेरे अंतर के रोएं-रोएं पुलकित हो रहे थे. कल निराला, आज प्रसाद, यह उन्मत्त आह्लाद कहां अंटता! ’’
यह तो है प्रथम प्रसाद-दर्शन का वर्णन, अब उनसे अंतिम भेंट का यह मार्मिक चित्र देखिये- ‘‘...‘कामायनी’ पूरे अर्थ में प्रकाशित हो चुकी थी. प्रसाद जी ने अपनी प्रतिभा का चरम ऐश्वर्य आधुनिक हिन्दी कविता को अर्पित कर दिया था ; किंतु यह अमर सर्वस्व-दान उनके भौतिक जीवन को बहुत महंगा पड़ा. मन में कैलास बसाकर तन कितने दिन धूल की मलीनता सहता! ...नियन्ता की कठोर कृपा से उनके अंतिम दर्शन भी होने थे. मैं शास्त्राचार्य्य के शेष वर्ष और इंटरमीडिएट की परीक्षाएं देने रायगढ़ से हिन्दू विश्वविद्यालय लौट आया था. बंधुवर कुंवर चंद्रप्रकाश सिंह के साथ प्रसाद जी को देखने की ठहरी. हम गये. रत्नशंकर जी चिकित्सकों की सम्मति का संकेत दे ही रहे थे कि प्रसाद जी ने देख लिया और अपने पास बुलाकर पहले की भांति साहित्यिक चर्चा छेड़ दी. ...सोना पीतल हो चुका था. गुलाब की अपत कंठीली डार ही बच रही थी. वह खाट से लग गये थे. किंतु कोई विश्वास करे न करे, आंखें तब भी चमकीली थीं और चेहरे पहले जैसी ही दृढ़ता थी. ’’
अफसोस तो यह कि हमारी भाषा की ऐसी गद्य-संपदा का बहुत बड़ा परिणाम अभी प्रकाशन की बाट भी जोह रहा है. यहां यह स्पष्ट करूं कि लगातार सर्जनरत रहने वाले शास्त्री जी ने अपनी अप्रकाशित गद्य-सामग्री के पृष्ठों की संख्या दस हजार तो उसी बातचीत में कही थी जो पहली भेंट में मैंने रिकार्ड की थी, बाद के तीन दशकों में यह कितनी हो चुकी होगी कहना कठिन है. इस मामले में हिन्दी का यह स्वर्णकाल चल रहा है कि समर्थ व सही प्रकाश्य सामग्री अब किन्हीं दो-चार सेठिया नस्ल के नाक-भौंसिकोड़ु प्रकाशन-गृहों या समूहों की मोहताज नहीं रही. हमारे यहां एक से एक लघुपत्रिकाएं निकल-चल रही हैं ; कमसाधनी- गैरसंस्थानी और प्रायः व्यक्तिप्रयासित होने के बावजूद चार-चार पांच-पांच सौ पृष्ठों तक के कलेवर-कल्प के साथ. ऐसा कुछ संभव कर रहे अभियानी साथियों से यह अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए कि वे अपने भाषा-साहित्य के ऐसे हिस्सों को अंधेरे से उबारकर प्रकाशित कराने का भी उपक्रम अब विचारें-खोजें.
जानकीवल्लभ निस्संदेह विरल-विशिष्ट थे, यह नियति का निर्मिति- सत्य है ; उन्होंने बेजुबान और छोटे-से-छोटे प्राणियों को कलेजे से लगाकर जीवन जिया, यह उनका स्वनिर्णय या स्वनिर्माण. यह यों ही नहीं था कि स्वयं महाकवि निराला जिस युवा कवि को तलाशते हुए बीएचयू के रुइया हॉस्टल तक जा पहुंचे थे वह ‘प्रिय बाल पिक’ कोई और नहीं बल्कि जानकी वल्लभ शास्त्री ही थे. आश्चर्य तो यही कि उन्हीं निराला के नाम भजने वालों ने उनके सबसे प्रिय युवाकवि को लगातार भुलाये रखा. अभी जबकि शास्त्री जी की स्मृति को महाप्रयाण के बाद नमन कर रहा हूं, उनके शब्द कानों में गूंज रहे हैं, ‘‘...निराला मेरे जीवन में न आये होते तो मैं बिहार के गया जिले के मैंगरा गांव में पूजा-पाठ कराते फिरने वाला कोई पंडित मात्र होता, इससे अधिक कुछ और नहीं. ’’
...मुजफ्फरपुर से डाल्टनगंज लौटने के क्रम में दो-एक दिन के उस पटना-प्रवास की चर्चा के बगैर शास्त्री जी से पहली भेंट का प्रसंग अधूरा ही रहेगा. ठहरना हुआ था रचनाकार-साथी भगवती प्रसाद द्विवेदी के यहां जो उस समय शहीद बटुकेश्वर दत्त के आवास के निकट रहते थे. भगवती जी याद कर-करके ऐसे मित्रों के यहां मुझे ले जाते, जिनके यहां टेपरिकार्डर होने की संभावना थी. कुछ मित्रों के यहां बैठकर शास्त्री जी से बातचीत का यह कैसेट धुंआधार सुना गया. उनका काव्य-पाठी कंठ ही नहीं, बोलने का अंदाज भी ऐसा कि एक-एक शब्द का उच्चारण तक मन में तरंगें भर देने वाला. सुनने वालों ने इसे खूब सराहा, आज भी सबको यह प्रसंग याद होगा. उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि!
Comment
आभार अरुण अभिनव जी... मैं कई दिन से यहां अपनी रचनाओं के आसपास आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा भी कर रहा था। आपके अनुमोदन-बल में रचनात्मक ऊर्जा का स्रोत है... हां, मैंने भी महसूस किया कि यहां रचनाकार-साथियों को अपने महान साहित्यकारों का स्मरण-उपहार देना चाहिए... महाकवि जानकी वल्ल्भ शास्त्री के बारे में नयी पीढ़ी को बताकर गहन संतोष-बल मिला...
आपके संस्मरण से ओ बी ओ का ये मंच जीवंत हो गया शयामल जी | चित्र आँखों के सामने घूम सा जाता है यही आपके लेखन की ताकत है | अधिकतर सदस्य काव्य रचनाएँ ही प्रस्तुत करते है ऐसे में यह संस्मरण एक नवीन झोंके की तरह है जिसमें निःसंदेह बड़ों का आशीर्वाद भी है || लिखते और परोसते रहें यही आग्रह है !! साधुवाद !!
माननीय मित्रवर सौरभ पाण्डेय जी, महाकवि जानकी वल्लभ शास्त्री को देखने-सुनने और उनसे मिलने का अवसर निश्चय ही जीवन के गौरवमय क्षण ही कहे जायेंगे। जानकर प्रसन्नता हो रही है कि आपको उन्हें इतने निकट से देखने-जानने का अवसर मिला है। संस्मरण पर आपकी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया से शक्ति मिली है। भगवती जी से आपकी निकटता की सूचना ने भी आपसे अपनापन बढ़ा दिया है। वह मेरे तीन दशक से भी पुराने अंतरंग साथी हैं। मुझे याद है, उनका सम्पर्क नंबर आपको देना है। डायरी से निकालकर शीघ्र ही आपको फोन करूंगा। सद्भावनाओं के लिए हार्दिक अनौपचारिक आभार बन्धुवर...
श्यामलजी, इतने अपनेपन से आपने इस संस्मरण को प्रस्तुत किया है कि मन विभोर हो गया है. आपने उस व्यक्तित्व की चर्चा की है जिसके पैर छूने के मुझे गौरवमय क्षण मिल चुके हैं. श्रद्धेय शास्त्री जी तब मुज़फ़्फ़रपुर के रामदयालुसिंह महाविद्यालय से सम्बद्ध थे और पैडल रिक्शे से गाहेबगाहे आया करते थे. महाविद्यालय के बगल में अपना निवास होने के कारण उसका विस्तृत मैदान ही हम स्कूली बच्चों के लिये खेल-कूद की जगह हुआ करता था.
भगवती प्रसाद द्विवेदीजी को मेरा सादर प्रणाम कह देंगे. मेरे विद्यार्थी जीवन के कुछ साल पटना में व्यतीत हुए हैं. उस दौरान अक्सर मैं उनके दूरभाष के कार्यालय में चला जाया करता था.
इस आत्मीय संस्मरण पर आपको हार्दिक बधाई.
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