कवि ताक रहा है फूल
श्याम बिहारी श्यामल
अँटा पड़ा है
मटमैला आँचल सदी का
क्षत-विक्षत लाशों से
तब्दील हो रहे हैं
तेज़ी से पंजे
तमाचों में
सवाल बनते जा रहे हैं
एक साथ
पेड़ और बच्चे
कविता में उग रही है
उलाहना
सूरज और हवा के खिलाफ भी
कवि ताक रहा है फूल
और जल रहा है
तेज़ ताप से
पंछी के बज रहे हैं
पंख और ठोर
सिहर रही है भोर
...और तब भी
ज़िंदा हूँ मैं
बचे हुए हैं आप
धड़क रही है धरती
यही क्या कम है !
तख़्त के शैतान को
इसी का बहुत ग़म है !
Comment
आपकी रचना ’कवि ताक रहा है फूल’ को इस माह की सर्वश्रेष्ठ रचना चयनित होने पर मेरी हार्दिक बधाइयाँ.आदरणीय श्यामल जी :)
//सवाल बनते जा रहे हैं
//एक साथ
पेड़ और बच्चे
कविता में उग रहा है//
आदरणीय श्यामल जी, जवाब नहीं. इतना कसा हुआ शिल्प और इतना सधा हुआ कथ्य. इस सुंदर काव्य अभिव्यक्ति के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
' कवि ताक रहा फूल ' पर आपकी प्रतिक्रिया से ताकत मिली है अरुण जी... हृदय से आभार...
कमाल है वाह इतनी सशक्त रचना को कहाँ छुपा कर रखा था आपने श्यामल जी आपका आना और वो भी इस सुखद और सशक्त अंदाज़ में वाह !! कविता का हर अंश अपने आपमें एक विस्तृत समीक्षा का हकदार है --
परन्तु इसके क्या कहने -
सवाल बनते जा रहे हैं
एक साथ
पेड़ और बच्चे
कविता में उग रही है
उलाहना
सूरज और हवा के खिलाफ भी
कवि ने सच और समाज को जीया है और तब इन प्रश्नों से टकराया है और उसी की प्रतिध्वनि है ये काव्य रचना हार्दिक साधुवाद !!
आभार मित्रवर गणेशजी बागी भाई और सतीश मापतपुरी जी... आपलोगों के स्नेह-समर्थन ने मुझे रचनात्मक ऊर्जा से भर दिया है... अनौपचारिक धन्यवाद...
धड़क रही है धरती
यही क्या कम है !
तख़्त के शैतान को
इसी का बहुत ग़म है
बहुत ही उम्दा कविता, शब्द मोती की भाति गुथे हुए, कथ्य और शिल्प सधे हुए, बहुत बहुत बधाई और आभार आदरणीय श्यामल जी |
...और तब भी
ज़िंदा हूँ मैं
बचे हुए हैं आप
धड़क रही है धरती
यही क्या कम है !
तख़्त के शैतान को
इसी का बहुत ग़म है !
'कवि ताक रहा है फूल' शीर्षक कविता पर माननीय मित्रों में सर्वश्री सौरभ पाण्डेय जी, अश्विनी रमेश जी और आशीष यादव जी की त्वरित और उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाओं से अभिभूत हूं। इससे मुझे अकूत रचनात्मक ऊर्जा मिली है। आप सभी मित्रों का अनौपचारिक हार्दिक आभार...
भाई श्यामलजी का उनकी रचना के साथ स्वागत है.
आज के समाज के प्रति संदेश तथा वर्तमान व्यवस्था के संवेदनाहीन और अदूरदर्शी कदम के प्रति मुखर संदेह को अभिव्यक्ति देती इस रचना की हर पंक्ति सधी हुई और संयत है. साहित्य का लक्ष्य ही मनुष्य होता है. जो साहित्य आम आदमी की भावनाओं को स्वर देने में संकोच करने लगे वह साहित्य सच्चा साहित्य ही नहीं. मनुष्य और उसका परिवेश ही जब खतरे में पड़ जाय तो एक संवेदनशील कवि का हृदय कैसे चुप रह सकता है?
//सवाल बनते जा रहे हैं
एक साथ
पेड़ और बच्चे
कविता में उग रहा है//
शिल्प, भाव तथा शब्द तीनों विन्दुओं के मानकों पर खरी इस रचना के लिये श्यामलजी को मेरी हार्दिक बधाइयाँ.
bahut khub shyamal sir ji,
aaj ki vyawastha ko sundar tarike se spasht kiya hai aapne.
तब्दील हो रहे हैं/तेज़ी से पंजे/तमाचों में
bilkul sahi likha hai aapne|
ज़िंदा हूँ मैं/बचे हुए हैं आप/धड़क रही है धरती
यही क्या कम है !/तख़्त के शैतान को/इसी का बहुत ग़म है !
ye raaj karne wale yahi soch rahe hai.
naman aapki lekhni ko.
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