हर दिन ज़िन्दगी से जूझता हूँ |
हर मोड़ पर मंजिलें ढूढता हूँ ||
.
वो रूठ जाते हैं बेवजह ही ,
उनसे भला मैं कब रूठता हूँ |
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मजबूरी का बनके पासबां मैं ,
अरमान अपने ही लूटता हूँ |
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अपना गम छुपाने के लिए अब,
मैं हाल औरों से पूछता हूँ |
.
मैं आज नफरत के दौर में भी,
तेरी उल्फ़त कहाँ भूलता हूँ |
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हर बार फिर उठता हूँ मैं ,चाहे ,
दिन में कई बारी टूटता हूँ ||
Comment
धन्यवाद किरण जी ...हार्दिक आभार .बहुत बढ़िया पंक्तिया ..
उनके रूठने मेरे मनाने की जद्दोजहद में जिन्दगी गुजरे जाती है,
पहलु बदलते बदलते ही सुबह शाम में तब्दील हुए जाती है,
एक नज़रे इनायत के इंतज़ार में तेरी जिंदगी अपनी फनाह हुए जाती है.........किरण आर्य
धन्यवाद सौरभ जी .... हार्दिक आभार ...:)
हर बार फिर उठता हूँ मैं ,चाहे ,
दिन में कई बारी टूटता हूँ ||
एक अच्छी गज़ल के लिये हार्दिक बधाई .. .
नाजिल साहिब, अच्छी ग़ज़ल कही है आपने ,
मजबूरी का बनके पासबां मैं ,
अरमान अपने ही लूटता हूँ |
यह शे,र बहुत ही प्यारा लगा , अंतिम शेर में लग रहा कुछ टंकण की त्रुटी है , "हा बार फिर ......" शायद आप "हर बार फिर...." कहना चाह रहे है | बधाई इस खुबसूरत प्रस्तुति पर |
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