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हसीं इतना है तेरा ख्याल, पल भर के लिए दिल से निकलता नहीं|
पहले जैसे भी हम जी लिए पर, जीवन अब तेरे बिन देखो चलता नहीं||

वो गज़ब का समय था हमारे लिए, तेरी पहली नज़र का, पहले प्यार का|
सारी बाते बिछड़ जायेंगी एक दिन , कैसे भूलूंगा दिन तेरे इकरार का||
तेरे पहलू में रहने की जिद पे अड़ा, लाख बहलाऊं ये दिल बहलाता नहीं|
हसीं इतना है तेरा ख़याल...............................................

तेरे गेसुओं की घनी छाँव में, मेरा डेरा बने, एक बसेरा बने|
मेरी हर शाम हो अब इन्ही के तले, अब इन्ही के तले हर सवेरा बने||
ये खुमारी तुम्हारी है ऐसी चढ़ी, लाख सम्हालूं ये दिल सम्हलता नहीं|
हसीं इतना है तेरा ख़याल...............................................

तेरी भौंहे की जैसे हो कोई कटार, ये पलक इस फलक से भी अच्छे बने|
बीच में जिनके आँखों की संजीवनी, पीकर ही मेरे आगे का जीवन चले||
जीवन दायिनी को फिर कैसे भूलूं, जीवन इसके बिना जबकि चलता नहीं|
हसीं इतना है तेरा ख़याल...............................................

होंठ ऐसे की जैसे हो प्याला कोई, ये छलकती नशीली गुलाबी शराब|
इस कदर अधरों से लगा के पियूँ, छोड़कर के हया भूल कर अपनी आब||
मस्त होकर नशे में तेरे ऐसे चलूँ, मदमस्त शराबी हो चलता कहीं|
हसीं इतना है तेरा ख़याल...............................................

आशीष यादव

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Comment by Abhinav Arun on November 7, 2011 at 12:28pm
आशीष जी उम्र का तकाज़ा है :-)) वैसे इन्हीं रचनाओं के पीछे एक संवेदनशील कवि की संभावनाएं छिपी होती हैं | उस कवि को सलाम और इस रचना को भी बिलकुल अनुभूति को काव्य में ढाल दिया आपने बधाई !!
Comment by आशीष यादव on September 17, 2010 at 2:56am
thankyou baban pandey ji
Comment by baban pandey on September 16, 2010 at 11:42am
पूरा सजा कर रखा है भाई ......बधाई
Comment by आशीष यादव on September 6, 2010 at 10:25am
मै सभी गुनीजनो की सराहना से अत्यंत प्रसन्न हूँ | मै सलिल जी का विशेष आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने मुझे इतना सब कुछ बताया| मै आशा करता हूँ की ऐसे ही आप लोगो का प्रेम मेरी कवितावों को मिलेगा|
Comment by Subodh kumar on September 5, 2010 at 4:10pm
bahut khoob....ashish jee..
Comment by sanjiv verma 'salil' on September 5, 2010 at 1:06pm
हसीं इतना है तेरा ख्याल, पल भर के लिए दिल से निकलता नहीं| = ३७ मात्रा
पहले जैसे भी हम जी लिए पर, जीवन अब तेरे बिन देखो चलता नहीं|| = ४२ मात्रा
तेरे पहलू में रहने की जिद पे अड़ा, लाख बहलाऊं ये दिल बहलाता नहीं = ४५ मात्रा

मात्राओं के असंतुलन से गीत की लाया भंग होती है. गीति रचना में कथ्य के सामान ही शिल्प का भी महत्त्व है. ''छोड़कर के हया भूल कर अपनी आब||'' क्या यह साहित्य (जो सबके हित के लिये है )में सम्मान पायेगा? सब कुछ साफ़-साफ़ कहना जरूरी नहीं है. बहुत कुछ संकेतों से भी कह दिया जाता है.

आपमें काव्य-रचना की प्रतिभा है. उसे तरशिये. रचना वरिष्ठों को दिखा-सुधारकर तब छापें तो अधिक सराहना पाएँगे.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 5, 2010 at 10:30am
होंठ ऐसे की जैसे हो प्याला कोई, ये छलकती नशीली गुलाबी शराब|
इस कदर अधरों से लगा के पियूँ, छोड़कर के हया भूल कर अपनी आब||
मस्त होकर नशे में तेरे ऐसे चलूँ, मदमस्त शराबी हो चलता कहीं|
हसीं इतना है तेरा ख़याल...


वोहो क्या बात है आशीष भाई, जरूर कोई राज है, वर्ना ऐसी रचना अकस्मात् नहीं बनती, जय हो ,
Comment by आशीष यादव on September 5, 2010 at 9:20am
kabhi tasawwur ke aalam me likh diya tha.

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