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ये कहाँ आ गए हम

ये कहाँ आ गए हम
यूँ साथ चलते-चलते….
कभी मरते थे
एक-दूजे पर
आज मार रहे
एक-दूजे को
कभी कहते थे
हिन्दू- मुस्लिम- सिख- ईसाई
आपस में है भाई-भाई
कैसे बदलती है सोच
यह भी देख रहे
गैरों से लड़ते-लड़ते
अपनों से लड़ बैठे
शान्ति की तलाश में
अमन को खो रहे
ये कहाँ आ गए हम
यूँ साथ चलते-चलते….


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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on March 27, 2012 at 6:35pm

आदरणीय हरीश जी नमस्कार,
                                       समाज में बढती वैमनस्यता पर   शीर्षक को सार्थक करती रचना. बधाई.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 25, 2012 at 8:37pm

sundar bhav yukt prshn. sambhlna hoga shanti hetu. badhai, aadarniya  harish ji, sadar abhivadan ke sath.

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"वाह..बहुत ही सुंदर भाव,वाचन में सुन्दर प्रवाह..बहुत बधाई इस सृजन पर आदरणीय अशोक जी"
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