खोलो मन की सांकल को ,
जरा हवा तो आने दो ,,
निकलो घर से बाहर तुम ,
शोख घटा को छाने दो ,,
तोड़ो तोड़ो इस कारा को ,
अंतर मे पुष्प खिलाने दो ,,
है जीवन यह क्षणिक सही ,
इसको अमर बनाने दो ,,
लिखो इबारत कुछ ऐसी ,
युग परिवर्तन हो जाने दो ,,
भावनाओं मे दंभ भरा ,
उसको मुझे मिटाने दो ,,
बेबस हैं मजबूर बहुत ,
उनको मुझे जगाने दो ,,
भूखा बचपन व्याकुल है ,
अन्न का दाना जाने दो ,,
आँखों मे दो रोटी केवल ,
यारों उसको मत छीनो ,
उनका भी हक जीने का ,
उनका ये हक मत छीनो ,,
तुम विलास मे डूबे हो ,
थोड़ा उसको तो छोड़ो ,
अंधी लिप्सा मे बहो मगर ,
मानवता को मत छोड़ो ,,
ए0 सी0 तो निर्बाध चले पर ,
उनके घर मे दिया नही ,
तेलों मे पकवान तले ,
उनके तन पर तेल नही,,
कैसी अर्थव्यवस्था है ये ,
किसकी खातिर पता नही ,,
मुद्रा बंद विदेशों मे है ,
देश की हालत पता नही ,,
फिर क्यों कर सत्तारूढ़ हुए ?
जब सेवा का भाव नही ,,
मधु के प्याले पीकर भी ,
आँखों मे है नीद कहाँ ,,
हाड़ तोड़ वह सोते हैं ,
कल की फुर्सत उन्हे कहाँ ,,
हुश्न इश्क़ की बातों मे ही ,
तुम तो भूले सारा जहां ,,
स्वेदों से धरती नम हो ,
इश्क़ की फुरसत उन्हे कहाँ ,,
हम राम मड़ैया मे खुश ,
महलों मे आराम नही ,,
राम भरोसे भारत है ,
कल का क्या हो पता नही ,,
Comment
आँखों मे दो रोटी केवल ,
यारों उसको मत छीनो ,
उनका भी हक जीने का ,
उनका ये हक मत छीनो...आहहाहा ...भावप्रवण..सामाजिक सरोकारों से सम्पूर्ण जुडाव..तटस्थता का कोई भाव नहीं..समग्र सक्रियता के साथ ..विषैले नागों के फन को कुचल देने का ओजपूर्ण आह्वान...आदरणीय अग्रज बधाई हो
लिखो इबारत कुछ ऐसी ,
युग परिवर्तन हो जाने दो . गहन अनुभूति को व्यक्त करती रचना पर बधाई स्वीकार करें.
वाह वाह अश्वनी जी, गज़ब, गज़ब गज़ब, मैंने आपकी पिछली किसी रचना पर कहा था कि प्रवाह नहीं बन रहा , पर यह रचना बिलकुल प्रवाह युक्त है, पूरी रचना को गुनगुनाता चला गया , बहुत ही खुबसूरत अभिव्यक्ति, शिल्प और कथ्य दोनों तारीफ़ के योग्य है, बधाई आपको |
आँखों मे दो रोटी केवल ,
यारों उसको मत छीनो ,
उनका भी हक जीने का ,
उनका ये हक मत छीनो ,,
तुम विलास मे डूबे हो ,
थोड़ा उसको तो छोड़ो ,
अंधी लिप्सा मे बहो मगर ,
मानवता को मत छोड़ो ,,
snehi ashvini ji, sadar. kam se kam itna to log kare hi. shandar chitran aur nivedan. badhai.
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