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जीवन मुझसे हरदम जीता ,

मै सदा सदा इससे हारा ,,

आकुल मन पिंजर बंद हुआ ,

कातर घायल यह बेचारा ,,

अति गहन तिमिर में व्याकुलमन,

विस्मृति से मुझे उबारे कौन,,

यह बुद्धि मनीषा किससे पूछे,

निर्जर भी सब हो गए मौन ,,

कुसुमित होता था कुसुम जहां ,

वह बगिया भी अब सूख गई ,,

निर्झरिणी बहती थी जहां सदा,

वह अमिय जाह्नवी सूख गई ,,

हा करुणा करुण विलाप करे ,

पर नेत्र नही हैं पनियाले ,,

तट बंध भ्रमित हो यह प्रश्न करे ,                                                            

कहाँ नीर है किसे संभाले ,,

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Comment

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Comment by अश्विनी कुमार on April 1, 2012 at 12:59am

प्रिय अनुज ,स्नेहाशीश ,, शब्द थे मन मे गहरे दबे हुए जिनमे से कुछ शब्दों को यहाँ मंच पर रख दिया ,,....हार्दिक आभार 

और हाँ मुशायरे को व्यस्तता के कारण समय नही दे पाया :( लेकिन क्या करें मार्च है तो बस मार्च है और जब समय मिला तो पता चला यहाँ भी क्लोजिंग हो गई :)

Comment by वीनस केसरी on March 29, 2012 at 4:10pm

गहरी रहस्यवादी पंक्तियाँ ...

Comment by अश्विनी कुमार on March 28, 2012 at 8:19am

आदरणीय प्रदीप जी आदरणीय शाही जी स्नेही अनुज चातक ,,एवम अग्रज बागी जी ,तथा सौरभ जी ;;को यथोचित हार्दिक अभिवादन तथा स्नेहाशीश ... अग्रज बागी जी प्रवाह मे बाधा को दूर करने का प्रयत्न करता हूँ ,... आप सभी का हार्दिक आभार .....||जय भारत ||


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 27, 2012 at 10:02pm

अन्यमनस्कता नहीं बल्कि रीतापन. ’कुछ नहीं’ नहीं बल्कि ’कुछ’ के ’नहीं’ होने का भाव. रचना में व्याप्त नैराश्य भय से कंपाता नहीं, व्यथित करता है. कहाँ गयी सुषमा.. प्रकृति-सुषमा ? कहाँ गया हमारा विस्तार.. भावनात्मक विस्तार ?

इन अन्तर्प्रवाहित सकारात्मक किन्तु कचोटती हुई भाव-पंक्तियों के लिये भाई अश्विनीजी को हार्दिक बधाइयाँ.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 27, 2012 at 8:40pm

आदरणीय अश्वनी जी , कविता में समाहित भाव की यदि बात करे तो निसंदेह बहुत ही बढ़िया है, मुझे केवल प्रवाह में अटकाव महसूस हो रहा है, एक बार जरा प्रवाह पर कसे , सच कहता हूँ चार चाँद न लग गए तो कहियेगा, बहरहाल बधाई स्वीकार करे |

Comment by Chaatak on March 27, 2012 at 4:09pm

कहाँ नीर है किसी संभालें !
कविता की अंतिम पंक्ति पर पहुँचते-पहुँचते आपने मन को बिलकुल व्याकुल कर दिया| भावों के साथ शब्दों और सुरों की ये जुगलबंदी लाजवाब है| नजर न लगे भाई!

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 27, 2012 at 1:36pm

ADARNIYA ASHVINI JI SADAR,

कुसुमित होता था कुसुम जहां ,

वह बगिया भी अब सूख गई ,,

निर्झरिणी बहती थी जहां सदा,

वह अमिय जाह्नवी सूख गई ,,

BAHUT SUNDAR BHAV KE SATH SUNDAR PRASTUTI, BADHAI.

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