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दूर क्षितिज प्राची की लाली ,

अरे बावरी ओ मतवारी ,

उस पल को तूँ विस्मृत कर दे ,

जीवन मे विष को जो भर दे ,

इंद्रव्रज्या नही  बन दधीचि तूँ ,

परम दंभ का ना बन प्रतीक तूँ ,

कण्ठ गरल मुख पर मुस्कान ,

सरल हृदय मुख कांतिमान ,

दो काष्ठों के संधि बीच ,

प्रलय निशा है रही खींच ,

बने अमरता की प्रतीक तूँ ,

परिवर्तन की अग्रदूत तूँ ,

मृत्यु सदृश्य शीतल निराश ,

विश्व देव का तू प्रकाश ,

हे प्रकृति की चंचल तुरंग ,

निर्बाध भ्रमण कर तूँ विहंग ,,

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 16, 2012 at 9:05pm
पर आपने द्वितीय पंक्ति में बावरी मतवारी शब्द का प्रयोग किया है जिस पर मेरी टिप्पणी में लिखा धीरोदात्त नायक शब्द सटीक नहीं बैठता पर उसे नायिका के संदर्भ में देखे।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 16, 2012 at 9:03pm

पुरानी शैली की रचनाओं की याद हो आयी. सकारात्मकता को प्रति शब्द स्थापित करती रचना.

सार्थक प्रयास के लिये बधाई, अश्विनीजी.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 16, 2012 at 9:01pm
अश्विनी जी अच्छी कविता है।आपकी रचना का प्रतिपाद्यय धीरोदात्त नायक जैसा लगता है जो वीर भी है।अच्छी सी कविता के लिए खूबसूरत बधाई।
सादर!
Comment by Chaatak on March 16, 2012 at 8:39pm

स्नेही अग्रज, सादर अभिवादन, इस बेहद खूबसूरत रचना के लिए हार्दिक बधाई!

Comment by MAHIMA SHREE on March 16, 2012 at 3:49pm
उस पल को तूँ विस्मृत कर दे ,
जीवन मे विष को जो भर दे ,

अश्विनी जी नमस्कार ...
भाव बड़े ही सुंदर है......बधाई.
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 16, 2012 at 2:22pm

संपूर्ण कृति. समस्त बधाई स्वीकार करें  महोदय जी ,

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 16, 2012 at 11:34am

बहुत ही सुंदर कविता| स्वागत है आपका, :)

Comment by AVINASH S BAGDE on March 16, 2012 at 11:02am

बने अमरता की प्रतीक तूँ ,

परिवर्तन की अग्रदूत तूँ ,...sunder kavita Ashwini  ji

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