(मात्रिक छंद)
उल्लाला = १५,१३ मात्रा
(मैथिली शरण गुप्त जी ने इस छंद पर कई रचनाएँ लिखी है)
(तुम सुनौ सदैव समीप है,जो अपना आराध्य है.)
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नहीं बड़ा परमार्थ से अब , धर्म है इस जहान में.
कभी स्वार्थ टिक पाता नहीं,किसी आत्मा महान में.
स्वारथ में जो प्रतिपल रहा ,कलंक है नर जाति पर.
आराध्य वही मानव जिसे,न फ़िक्र जाति विजाति पर.
है नाम पुनीत दधीच का,जन हित में जीवन दिया.
रानी थी एक झाँसी हित,कुर्बां कर यौवन दिया.
कर चयन स्वारथ की सीढ़ी , जो कोई आगे बढ़े.
प्रभु न चलूँ पद चिन्ह उसके,जो भी यह सीढ़ी चढ़े.
Comment
श्री वाहिद सर सादर नमन, आप लोगों के बीच रहकर कुछ नया सीखने की कोशिश में रहता हूँ , आप का स्नेह मिलने से मन एक नयी उमंग आती है कुछ नया करने की और अच्छा करने की, उत्साहवर्धन के लिए आपका ह्रदय से आभार
आदरणीया राजकुमारी मैम आपकी प्रतिक्रिया से रचना को बल मिलता है सराहना हेतु कोटि कोटि धन्यवाद
प्रिय मृदु जी,
शिल्प पर आपकी गहन जानकारी देख कर असीम प्रसन्नता का अनुभव होता है| मानवता के प्रति समपर्ण के भाव लिए आपकी यह कृति बहुत ही सुन्दर बन पड़ी है| आपसे काफ़ी कुछ सीखने को भी मिलता है| हार्दिक बधाईयां!
bahut achchi prernadaai sandesh parak rachna...badhaai.
श्री अश्विनी कुमार जी उत्साह वर्धन के लिए कोटि कोटि धन्यवाद
आशीष जी सराहना के लिए ह्रदय से आभार
अति सुंदर ,अच्छी शिल्प प्रधान कविता .......सादर आभार
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