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कुछ नया इसमें नहीं , दास्तां पुरानी दे गया 

यार मेरा आँख को नमकीन पानी दे गया |

मैं इसे सबको सुनाऊं , लोग सुनते झूम के 
वो जलाकर दिल मेरा , मुझको कहानी दे गया |

भूल सकता हूँ भला मैं किस तरह उसको बता
याद करने को तडपता दिल निशानी दे गया |

हक उसे तो है मुकरने का मगर मुझको नहीं
हल्फनामा ले गया , वा'दा जुबानी दे गया |

बाद मुद्दत जी रहे जिनको लगाकर हम गले
प्यार करके ' विर्क ' वो यादें सुहानी दे गया |

                                -----------  दिलबाग विर्क

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Comment by राज लाली बटाला on May 8, 2012 at 1:39am

हक उसे तो है मुकरने का मगर मुझको नहीं

हल्फनामा ले गया , वा'दा जुबानी दे गया | khoob rahi !! Virk ji 

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 7, 2012 at 9:07am

बहुत प्यारी भावपूर्ण ग़ज़ल लिखी है विर्क जी 

Comment by Roshni Dhir on May 6, 2012 at 10:49pm

विर्क जी बहुत सुंदर गजल कही .. वाह

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 6, 2012 at 9:16pm

हक उसे तो है मुकरने का मगर मुझको नहीं

हल्फनामा ले गया , वा'दा जुबानी दे गया | vah ji vaah. bahut hoshiyar hai vo. badhai.
Comment by dilbag virk on May 6, 2012 at 7:32pm

आभार................

लेकिन  डॉ. होने का सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं है 

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on May 6, 2012 at 7:16pm

सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति डॉ. साहब! बधाई!

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