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छा गए नभ पे बादल (गीत)

छा गए नभ पे बादल
धरा पे हलचल हो गयी
बह चली शीतल पवन
आशाएं तरंगित हो गयी
बरसेगा धरती पे जल
किसान चलाएगा हल
डालेगा बीज खेतों में
स्वर्णिम होगा घर घर
बरखा बूँदें गिरने से
धरा तो गीली हो गयी
छा गए नभ पे बादल
धरा पे हलचल हो गयी
बह चला पानी धरती पर
अमूल्य है ये निर्मल जल
हो जाए कहीं बेकार नहीं
बना के मेड़ों पर बंद
जल निकास नाली हो गयी
छा गए नभ पे बादल
धरा पे हलचल हो गयी
देखा मौसम बारिश का
झूम उठा मयूर मन
भीगी चोली भीगा तन
हर्षित पुलकित हुआ जन
लगाये नाना पौध सभी
धरा पे हरियाली हो गयी
छा गए नभ पे बादल
धरा पे हलचल हो गयी

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Comment

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Comment by Albela Khatri on June 15, 2012 at 8:58pm
हा हा हा हा ...........वाह प्रदीप जी वाह
मज़ा आ गया
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 15, 2012 at 2:56pm

आदरणीय बिस्वजीत जी, सादर 

मौज लीजिए न . धन्यवाद.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 15, 2012 at 2:55pm

प्रिय कुमार जी, सस्नेह 

तड़प का आनंद ही कुछ और है.

धन्यवाद.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 15, 2012 at 2:50pm

आदरणीय अलबेला खत्री जी, सादर अभिवादन 

आपने रचना के प्रत्येक अंग का बारीकी से आनंद लिया , धन्यवाद. 

चोली देखी  तो नही पर फिल्मों में गीतों  आदि के माध्यम से जाना. शायद  ग्रामीण क्षेत्रों में इसका प्रयोग होता होगा. अब ये डाइनासोर की तरह गायब होने वाली है. रही बात पैजामा कुर्ते की तो इस पे भी शायद गीत बना है पैजामा तंग है कुरता ढीला. आप जानते हैं  कि पानी की कितनी तंगी है. चोली में पानी कम और कुर्ते पैजामे में ज्यादा पानी लगता. तो इसे कट कर दिया गया. फिर आप उनमें से तो  हैं नहीं जो देश को बर्बाद कर रहे हैं  कुरता पैजामा पहन कर. अपनों का भी तो ध्यान रखना हमारा फर्ज है. धन्यवाद जी .

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 15, 2012 at 2:30pm

आदरणीय अरुण जी, सादर 

आपका स्नेह मेरी प्रेरणा है. धन्यवाद. 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 15, 2012 at 2:29pm

बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय अविनाश जी.

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on June 13, 2012 at 11:20pm
आदरणीय कुशवाहा सर. एक तो पटना मेँ पानी बरस नहीँ रहा, उपर से आपने बारिश का जिक्र करके और तड़पा दिया। हा...हा...हा...
Comment by Bishwajit yadav on June 13, 2012 at 10:07pm
प्रणाम प्रदीप जी
बुहुत बहुत बधाई हो मन हरियर हो गया
जय हो
Comment by Albela Khatri on June 13, 2012 at 7:49pm

वाह ! वाह ! आदरणीय प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा जी........बहुत खूब !
नभ, बरसात और माटी को लेकर बहुत सुन्दर रचना आपने  रची...बांच कर मन प्रसन्न हुआ

आपको  मेरी  ख़ूब ख़ूब  बधाई
बस एक बात समझ नहीं आई
______चोली के भीगने  का वर्णन तो आपने याद रख कर  कर दिया ......मेरा कुर्ता पायजामा भी तो  भीगा,  उसे आप क्यों भूल गए ? थोड़ा हम  कुर्ते वालों को  भी याद रखा करो जी.....हा हा हा  हा

Comment by अरुण कान्त शुक्ला on June 13, 2012 at 7:07pm

सुन्दर कविता ..बधाई .

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