बोतल पर क्यों डाट लगादी बाबाजी
मखमल में क्यों टाट लगादी बाबाजी
हमने जिसको जो भी ज़िम्मेदारी दी
उसने उसकी वाट लगादी बाबाजी
कुल्फी खानी थी तो पहले कह देते
अब तो मैंने चाट लगादी बाबाजी
पत्नी ख़ुश है क्योंकि बूढ़े पापा की
घर के बाहर खाट लगादी बाबाजी
हाय डार्लिंग ! की जगह बहनजी कहने पर
लड़की ने चम्माट लगादी बाबाजी
पैसा लेकर प्रश्न पूछने वालों ने
संसद में भी हाट लगादी बाबाजी
कौन बचाये जोशी को अब 'अलबेला'
जब मोदी ने काट लगादी बाबाजी
Comment
क्षमा चाहता हूँ आदरणीय योगराज जी, यद्यपि आपने समझाया बहुत सलीके से है, परन्तु मैं पूरी तरह अभी भी समझ नहीं सका हूँ. कदाचित धीरे धीरे ही समझ आएगा . बहरहाल मुझे ये जानना था कि अब इन्हें ठीक कैसे करूँ ?
प्रयास करूँगा कि आगे इसे न दोहराऊं........आपने समय दिया, सुझाव दिया ...आपका आभारी हूँ
__धन्यवाद
अलबेला भाई जी, आपके बाकी अशआर बिलकुल ठीक ठाक हैं. देखिए. इस ग़ज़ल में "टाट, वाट, खाट और वाट आदि काफिये हैं, और "लगा दी बाबाजी" रदीफ़ है जोकि एकदम दुरुस्त है. दरअसल मतले या हुस्न-ए-मतला (पहले मतले के बाद में आने वाले मतले) के बाद जहाँ भी किसी शेअर के दूसरे मिसरे (मिसरा-ए-सानी) के अंत में "बाबाजी" के मुकाबले ऐसा शब्द लिया जायेगा जिसका अंत बड़ी "ई" की मात्रा से होता हो (मिसाल के तौर पर चालाकी, जासूसी, पिता जी, माता जी, हैरानी, परेशानी, नादानी, सालिम काली, पाली, निराली, ख्याली आदि) तो वह ऐब-ए-ताक़बुल-ए-रदीफ़ का दोष पैदा होगा.
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय डॉ प्राची सिंह जी.........
आपकी सराहना मेरे लिए प्रमाण-पत्र से कम नहीं
____बाबाजी भी आपको शुक्रिया कह रहे हैं
____सादर
याद रखना भैया कुमार गौरव अजीतेंदु ............ख़ासकर यू पी में तो बिलकुल बहनजी मत कहना, बहनजी कैसी होती हैं....ये वहाँ के लोग जानते हैं ....हा हा हा हा
___आपकी टिप्पणी से आनन्द मिला ...आभार
आदरणीय योगराज जी,
ख़ुशामदीद.
आप एक ख़ुशनुमा बयार की तरह आये और सराहना के साथ साथ मेरा तीय-पांचा करके फट से चले भी गये .बड़ा अच्छा लगा आपका इस प्रकार विस्तार से टिप्पणी करना .....धन्यवाद हुज़ूर...थैंक यू वैरी मच !
पर एक बात समझना चाहता हूँ ....आपने फरमाया कि
___दोनों मिसरों का अंत "दी" और "जी" से हुआ है जोकि समान स्वर पैदा कर रहे हैं. इल्म-ए-अरूज़ में इसे "ऐब-ए-ताकाबुल-ए-रदीफ़" के नाम से जाना जाता है.
___________प्रभुजी, मेरे तो सारे मिसरों में यही हुआ है . तो क्या ये पूरी रचना ऐबग्रस्त है ? मैं अगर ये कहूँ कि इस ग़ज़ल का रदीफ़ "लगादी बाबाजी" है, तब भी क्या ये ऐब ही है ? मानलो अगर ये ऐब है तो फिर इसका इलाज क्या है ? क्या लगादी को लगाई करने से ठीक होगा ?
कृपया मार्गदर्शन करें............
_________धन्यवाद
//बोतल पर क्यों डाट लगादी बाबाजी
मखमल में क्यों टाट लगादी बाबाजी// बोतल पर डाट - बहुत बेइंसाफी है ये. मतला सुन्दर कहा है.
//हमने जिसको जो भी ज़िम्मेदारी दी
उसने उसकी वाट लगादी बाबाजी// हुज़ूर, गलत लोगों को जिम्मेवारी सौंपेंगे तो यही होगा न ? एक पुराना गीत याद आ गया, "तुम अपना रंज-ओ-गम अपनी परेशानी मुझे दे दो" वैसे किसी से कहियेगा मत मालिक, दोनों मिसरों का अंत "दी" और "जी" से हुआ है जोकि समान स्वर पैदा कर रहे हैं. इल्म-ए-अरूज़ में इसे "ऐब-ए-ताकाबुल-ए-रदीफ़" के नाम से जाना जाता है.
//कुल्फी खानी थी तो पहले कह देते
अब तो मैंने चाट लगादी बाबाजी// वाह वाह वाह !!!
//पत्नी ख़ुश है क्योंकि बूढ़े पापा की
घर के बाहर खाट लगादी बाबाजी// क्या कहने हैं - क्या कहने हैं. जवाब नहीं इस शेअर का. हासिल-ए-ग़ज़ल शेअर. हालाकि ऊपर बताया गया ऐब यहाँ भी चिपका हुआ है.
//हाय डार्लिंग ! की जगह बहनजी कहने पर
लड़की ने चम्माट लगादी बाबाजी// अब आगे को कान हो जाने चाहियें भाई जी. :)))
//पैसा लेकर प्रश्न पूछने वालों ने
संसद में भी हाट लगादी बाबाजी// सही फ़रमाया, मगर नतीजा क्या निकला ??
//कौन बचाये जोशी को अब 'अलबेला'
जब मोदी ने काट लगादी बाबाजी // जवाब नहीं सर जी. सब एक दूसरे की बो-काटा करने पर तुले हुए हैं. बहरहाल इस खूबसोरत और मसालेदार कलाम के लिए दिल से बधाई.
आपका ख़ूब ख़ूब धन्यवाद सम्मान्य प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा जी.,
पत्नी ख़ुश है क्योंकि बूढ़े पापा की
घर के बाहर खाट लगादी बाबाजी
आदरणीय अलबेला जी, सादर अभिवादन
एक से बढ़ के एक , बधाई.
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