सुर है लेकिन ताल नहीं है बाबाजी
पॉकेट है पर माल नहीं है बाबाजी
क्योंकर कोई चूमे हमको सावन में
अपने चिकने गाल नहीं है बाबाजी
दर्पण से उनको नफ़रत हो जाती है
जिनके सर पर बाल नहीं है बाबाजी
मेहमानों की ख़ातिरदारी कैसे हो
घर में आटा दाल नहीं है बाबाजी
देश बेच कर खाने वाले लोगों का
लोहू शायद लाल नहीं है बाबाजी
उनकी ममता घुट घुट कर मर जाती है
जिनके अपने लाल नहीं है बाबाजी
मंहगाई के बिच्छू डंक चुभाते हैं
मोटी अपनी खाल नहीं है बाबाजी
हास्यकवि 'अलबेला' ऐसा घोड़ा है
जिसके खुर में नाल नहीं है बाबाजी
-अलबेला खत्री
Comment
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,
विनम्र प्रभाती प्रणाम
मान गया दादा, आपने सही जगह कान पकड़ा है . अब कोई बहाना चलने वाला नहीं है.
इस भूल के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ
वैसे कहना मत किसी से, ये भूल नहीं है . क्योंकि अनजाने में नहीं हुई है, ये लापरवाही है और भविष्य में ऐसी लापरवाही न हो इसका ख्याल रखूँगा .
अब कान तो छोड़ो.........उफ़.......दुखता है ...
सादर
बहुत अच्छा प्रयास हुआ है, भाई जी. लेकिन एक बात साझा करना चाहता हूँ, कि है और हैं को एक साथ काफ़िये में लेकर नहीं चलते. आपका मतला है को लेकर चल रहा है तो कुछ अश’आर हैं क़ाफ़िया कैसे बना सकते हैं ?
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद अरुण शर्मा जी
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद संदीप जी
सादर
धन्यवाद भाई राजकुमार जी
सादर
वाह वाह लक्ष्मण प्रसाद जी
बढ़िया जुगलबन्दी निभाई ...हा हा हा
सादर
धन्यवाद आदरणीय बागी जी,
कृपया लोहू वाला दोष दूर कर दीजिये,,,,,,,,,मैं समझ नहीं पा रहा हूँ
सादर
आदरणीय अलबेला जी क्या कहने आपके और बाबा जी के, दिल बाग़-बाग़ हो गया.
अलबेला जी लेकर फिर बाबा को आए हैं.
अलबेली बात कर हम सबका मन बहलाए हैं.
बेहद शानदार क्या बात है सर जी
हास्य की बौछार कर देते हैं आप सुबह सुबह
बहुत बहुत बधाई आपको
देश बेच कर खाने वाले लोगों का
लोहू शायद लाल नहीं है बाबाजी
दर्पण से उनको नफ़रत हो जाती है
जिनके सर पर बाल नहीं है बाबाजी
अलबेला भाई आज अच्छा लगा पढ़ कर.
बधाई
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