तशवीशात के अजीमुश्शान महल में जैसे खो गया हूँ. हज़ार रास्ते, मगर कौन सही है, दीवारें जो दिख रहीं हैं वो आँखों का धोखा तो नहीं. दरीचों में समाया मंज़र शायद वहम हो. जगह जगह फिक्रों के फानूस टंगे हैं, अज़ीयतों के जौहर से दरोदीवार आरास्ता हैं. दूर कहीं आँगन में अंदेशों के आबशार से बह रहे हैं, बगीचे खौफ के दरख्तों से गुंजान और उलझनों के टिमटिमाते चरागों से शबिस्ताँ रौशन है. गलियारों में कशीदगी के कालीन बिछे हैं, कफेपा से जिनपे दिल की शोरीदगी के नक्श उभर आए हैं. बैठकखानों में मखफी सायों की मजलिस लगी है, खामोशियाँ जिनका खैरमकदम कर रही हैं.
मैं जागा हूँ या ख्वाब में हूँ, ये शब का सांवला बदन है या सहर का का पहला धुंधलका? जो हो रहा है वो सच है या मेरे तफक्कुरात से तखलीककर्दा दुनिया! कौन मुझे बताए मैं ज़िंदा हूँ या गिरफ्तारेअज़ल?
© राज़ नवादवी
भोपाल, सायंकाल ८.१० बजे, २१/०७/२०१२
तशवीशात- चिंताएं; अजीमुश्शान- आलीशान; अज़ीयत- कष्ट; जौहर- रत्न, मणि; आरास्ता- सज्जित; आबशार- झरने; गुंजान- घना, गहन; शबिस्ताँ- शयनगाह; कशीदगी- अप्रसन्नता; कफेपा- तलवे; शोरीदगी- उद्विग्नता; मखफी- अदृश्य; मजलिस- सभा; खैरमकदम- अभिनन्दन; शब- रात्रि; सहर- सुबह; तफक्कुरात- भय, चिंता; गिरफ्तारेअज़ल- मरणासन्न
Comment
आदरणीय अलबेला जी, बहुत बहुत शुक्रिया.
आदरणीय रेखाजी, सही फरमाया आपने. शम्मा तो रौशन है, पर खुद अपनी दानाई इसका चिलमन है. आपकी शुभकामनाओं के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!
राज़ जी ,सादर
waah janaab !
ye rang bhi khoob hai...............
jiyo dost !
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