For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २६

बैंगलोर शहर से चिंतामणि, (जिला चिक्काबल्लापुर) और फिर वहाँ से कोलार तक का कार का सफर. ऊँचे नीचे खेत खलिहानों में तस्वीर सा चस्पां कर्नाटका सूबे का देहाती जीवन, छोटी छोटी पहाडियों के पसेमंज़र साफ़ सुथरे घरों की कतारें, और बीच बीच में आते जाते गाँव कसबे- सब कुछ बहुत ही दिलकश था. ताड़ और नारियल के दरख्त खेतों में अपनी मह्वियत में खड़े थे और नज़र भर भर कर सब्जियत के साये नज़रों में तहलील हो रहे थे. मैं सोच रहा था लोग गाँवों को छोड़ शहरों की ओर क्यूँ जाते हैं. दूर खलिहानों से बहके आती खुनक हवाएं भी गोया मुझसे यही पूछ रहीं थीं कि जहां मैं अपनी खालिस नौइयत में हूँ वहाँ से लोग क्यूँ कूच कर जाते हैं. कार अपनी रफ़्तार में आगे चलती जा रही थी और स्लेट सी साफ़ सड़क पीछे.

हम चिंतामणि कस्बा पहुँच चुके थे इसका एहसास लाउडस्पीकर से आती तेज आवाज़ के गोशों से टकराने से हुआ. जुबां कन्नड़ थी चुनांचे फहम से उसका कुछ वास्ता न हुआ पे हाफिजे में तफुलियत से वबस्ता यादें ताज़ा हो गईं कि कैसे हमारे अपने आबाई शहर नवादा (बिहार) में रोज़ाना अहलेफरोश चीख चीख कर चूहों के मारने की दवा खरीदने की गुहार किया करते थे या फिर छोटी छोटी बीमारियों जैसे दाद और खुजली की दवा खरीदने की दरख्वास्त. यूँ भी होता था कि हर जुम्मे को शहर के सिनेमा टाकीज़ में नए फिल्म के आने का ऐलान भी ऐसे लाउडस्पीकर पे ही किया जाता था जिसे सायकल रिक्शा वाला जगह जगह खींच कर ले जाया करता था. वो बचपन इक बार फिर अपनी अधेड़ उम्र में आके खड़ा हो गया था मेरे सामने.

थोडा आगे बढ़ा तो देखा बेतरतीब बालों और बेपरवा कपड़ों में लोगों का इक तांता किसी दफ्तर में लगा हुआ है. मैंने पूछा कि ये क्या है गोकि कयास था कि ये क्या होगा. ये कोई कस्बाई दर्जे का अदालत खाना था जहां लोग अपनी शिकायतों और इन्साफ की गुहार किए कतारों में मुन्तजिर थे. छोटे शहरों और कस्बों में यह इक आम बात है, और मैं हैरत और कुछ दुःख के साथ ये सोच रहा था कि इक अदद नाली के पानी, या इक मामूली घर के कचरे का सवाल लोगों को क्यूँ अदालतखाने तक खींच कर ले आता है. ये तहम्मुल की कमी और कस्बाई ज़िंदगी के इक गैरमतलूब पहलू का नज़ारा था जिससे इक बार फिर मैं दरपेश हुआ.

चिंतामणि के बाजार से गुजरने का सफर जारी था, एक के बाद एक दुकानें गुज़र रहीं थीं- रजाई-गद्दे की, मच्छरदानी-पर्दों की, बर्तन भांडों की, रस्सी और बोरों की, वगैरह वगैरह. ये यहाँ के लोगों की बुनियादी ज़िंदगी का कोई आइना हो जैसे गोकि थोड़े और करीब से जाके देखने से ये नुमायाँ हो सकता था कि शहरी आसाइशों के वसीले और तरक्कियात के तआस्सुरात से यहाँ के लोग महरूम नहीं हैं.  

शाम के करीब हम कोलार पंहुंचे. दफ्तर के काम से फारिग होने के बाद हम वापिस बैंगलोर को रवाना हुए, मगर इस मर्तबा चेन्नई-बंगलुरु हाईवे के रास्ते. नए ज़माने की कोई शाहराह थी वो सड़क, मगर बाएँ-दाएं मैदानों की खूबसूरती पे कुदरत का फैज़ कुछ कम न था. पथरीले पहाड़ों पे सब्जे न के बराबर थे पे उनका पूरा ऊपरी बदन गोल गोल पत्थरों से यूँ सजा था मानों किसी कारीगर ने बड़ी मेहनत से उनपे नगीने जड़ रक्खे हों.

लेबरनेट, बंगलोर के गेस्टहाउस पहुंचते पहुंचते मोहतरमा-ए-शब का दाखिला हो चुका था. ऐसा लग रहा था कि कमरे के बाहर की खुली छत और गलियारों में आसपास के नारियल के पेड़ों से हमसीना होके हवा नहीं बह रही हो बल्कि कोई शमशादकद परी दबे पाँव मद भरी अदा में टहल रही हो और उसके ढीले पैरहन का रूमानी दामन फर्श से लम्सरेज़ होता हुआ इक मद्धम पुरअसरार आवाज़ पैदा कर रहा हो.  

मीठी नींद में थक के बिस्तर पे गिरके सो जाने के लिए ये ख्याल काफी था!

 

© राज़ नवादवी

बैंगलोर, रात्रिकाल, २४/०७/२०१२    

उर्दू लफ़्ज़ों के मानी-  

चस्पां- चिपका हुआ; पसेमंज़र- परिदृश्य में; मह्वियत- तल्लीनता; सब्जियत- हरियाली; तहलील हो रहे थे- घुल रहे थे; खुनक हवाएं- ठंढी हवाएं; खालिस- शुद्ध; नौइयत- अवस्था; गोशों से- कानों से; चुनांचे- इसलिए; फहम- बुद्धि; हाफिजे में तफुलियत से वबस्ता यादें- स्मृति में बचपन से जुडी़ यादें; आबाई शहर- पुरखों का शहर; अहलेफरोश- बेचने वाले; जुम्मे को- शुक्रवार; कयास- अनुमान; मुन्तजिर- प्रतीक्षा में; तहम्मुल- सहिष्णुता; गैरमतलूब- अनपेक्षित; दरपेश होना- सामने होना; नुमायाँ- प्रकट; आसाइशों के वसीले और तरक्कियात के तआस्सुरात- आराम के साधन और विकास के लक्षण; महरूम- वंचित; फारिग- निवृत्त; इस मर्तबा- इस बार; कुदरत का फैज़- प्रकृति की कृपा; मोहतरमा-ए-शब का दाखिला हो चुका था- रात की देवी का आगमन हो चुका था; हमसीना होके- सीना से लग के; शमशादकद परी- सर्व नामक पेड़ से कद वाली परी; पैरहन- लिबास, गाउन; दामन- आँचल; फर्श से लम्सरेज़ होता हुआ- फर्श से सटता हुआ; मद्धम पुरअसरार आवाज़- धीमी, रहस्यमय ध्वनि

  

Views: 465

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on PHOOL SINGH's blog post यथार्थवाद और जीवन
"सुविचारित सुंदर आलेख "
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"बहुत सुंदर ग़ज़ल ... सभी अशआर अच्छे हैं और रदीफ़ भी बेहद सुंदर  बधाई सृजन पर "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)
"आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। परिवर्तन के बाद गजल निखर गयी है हार्दिक बधाई।"
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। सार्थक टिप्पणियों से भी बहुत कुछ जानने सीखने को…"
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गीत का प्रयास अच्छा हुआ है। पर भाई रवि जी की बातों से सहमत हूँ।…"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

अच्छा लगता है गम को तन्हाई मेंमिलना आकर तू हमको तन्हाई में।१।*दीप तले क्यों बैठ गया साथी आकर क्या…See More
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहते हो बात रोज ही आँखें तरेर कर-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार। यह रदीफ कई महीनो से दिमाग…"
Tuesday
PHOOL SINGH posted a blog post

यथार्थवाद और जीवन

यथार्थवाद और जीवनवास्तविक होना स्वाभाविक और प्रशंसनीय है, परंतु जरूरत से अधिक वास्तविकता अक्सर…See More
Tuesday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"शुक्रिया आदरणीय। कसावट हमेशा आवश्यक नहीं। अनावश्यक अथवा दोहराए गए शब्द या भाव या वाक्य या वाक्यांश…"
Monday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी।"
Monday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"परिवार के विघटन  उसके कारणों और परिणामों पर आपकी कलम अच्छी चली है आदरणीया रक्षित सिंह जी…"
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service