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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २४

रायपुर से भोपाल का हवाई सफर- घरों के घरौंदे होकर नुक्ते में बदलकर खो जाने और आसमाँ के पहाड़ के ऊपर मील दर मील चढ़ते जाने का अद्भुत सफर. चंद लम्हों में ज़मीनी सच्चाइयों का दामन छूट चुका था और हम ख़्वाबों के एक खामोश तैरते समंदर के ऊपर तैर रहे थे. हर सम्त बादलों के बगूले तरह तरह की नौइयत और शक्ल में परवाज़ कर रहे थे- उनकी आहिस्ताखिरामी और लहजे के सुकून को देखकर ऐसा लग रहा था गोया किसी फ़कीर ने अपने फैज़ का खज़ाना लुटा दिया हो और नीले सफ़ेद रुई के फाहों में ज़िंदगी की तपिश से नजात के मरहम बंट रहे हों. मद्धम मद्धम आती जाती रौशनियों के रक्स और दूर उफुक पे सतरंगी शुआओं के जमघट- खल्वतों में कुदरत के नखलिस्तान हों जैसे.

सोच रहा था, हम मर के जिस दुनिया में जाते हैं, उसके दरवाज़े यहीं कहीं पे पोशीदा हैं क्या....

© राज़ नवादवी

भोपाल, अपराह्न ०२.४८, १७/०७/२०१२ 

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on July 21, 2012 at 6:47pm

आदरणीय सौरभ जी, बहुत बहुत धन्यवाद!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 19, 2012 at 10:05pm

समय विशेष का मनोहारी शब्द-चित्रण हुआ है.  राज़ नवादवी साहब, हार्दिक बधाई.

Comment by राज़ नवादवी on July 19, 2012 at 9:14pm

शुक्रिया आदरणीया राजेशजी! आपके शब्दों से बड़ा ही उत्साहवर्धन हुआ. ज़िंदगी की दास्ताँ क्या कहिए, है सब कुछ नुमायाँ क्या कहिए. 

-- राज़ नवादवी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 18, 2012 at 9:18am

बहुत सुन्दर आपके शब्दों से चित्र सा  घूम गया आँखों के सामने बहुत अच्छा लिखते हैं आप 

कृपया ध्यान दे...

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