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इन्तहा है, हमारे सब्र की,
न जाने कब ये खत्म होगी,
जाने कब जागेंगे, और कसेंगे पीठ अपनी,
कब सचेत होंगे,
कब रोकेंगे हम विध्वंस को|
क्यों हम कहते हैं की मान जाओ,
जबकि हम जानते है,
वो कहने से नहीं मानेंगे,
वो नहीं समझेंगे मानवता को|
हम अपने सामर्थ्य से रोक सकते हैं उन्हें,
फिर भी सब्र किये बैठे हैं|
बहुत बड़ी इन्तहा है हमारे सब्र की,
अनंत तो नहीं, पर उसकी ही ओर|

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 10, 2010 at 1:04pm
आशीष भाई, वाकई हम सब से कही न कही सब्र का इम्तहान लिया जाता रहा है , अभी भी हम यह इम्तहान डे रहे है , खुबसूरत अभिव्यक्ति पर साधुवाद,

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on October 10, 2010 at 9:04am
आशीष भाई बहुत बहुत सुन्दर
मै तो बस इतना कहूँगा कि सब्र का फल हमेशा ही मीठा होता है|
Comment by DEEP ZIRVI on October 9, 2010 at 11:44pm
जिस क्टोरी मे अमन के कबूतर पानी पीया करते थे हम ने उन्ही में बारूद भर कर बम कर दिया
Comment by आशीष यादव on October 9, 2010 at 8:21pm
Dhanyawad NAVIN JI. sach tamannaye to bahut hai. Bs aap logo ka aashirwad chahiye.

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