आज लगते ही तू लगता है चीखने
"आ ज़ाऽऽऽ दीऽऽऽऽऽऽऽऽ...."
घोंचू कहीं का.
मुट्ठियाँ भींच
भावावेष के अतिरेक में
चीखना कोई तुझसे सीखे .. मतिमूढ़ !
पता है ?........
तेरी इस चीखमचिल्ली को
आज अपने-अपने हिसाब से सभी
अपना-अपना रंग दिया करते हैं.. .
हरी आज़ादी.. .सफ़ेद आज़ादी.. . केसरिया आज़ादी...
लाल आज़ादीऽऽऽ..
नीली आज़ादी भी.
कुछ के पास कैंची है
कइयों के पास तीलियाँ हैं.. .
ये सभी उन्हीं के वंशज हैं
जिन्होंने तब लाशों का खुद
या तो व्यापार किया था, या
इस तिज़ारत की दलाली की थी
तबभी सिर गिनते थे, आज भी सिर गिनते हैं..
और तू.. .
इन शातिर ठगों की ज़मात को
आबादी कहता है
आबादी जिससे कोई देश बनता है
निर्बुद्धि .... !
जानता भी है कुछ ? इस घिनौने व्यापार में
तेरी निर्बीज भावनाओं की मुद्रा चलती है.. ?
********
--सौरभ
Comment
कुछ के पास कैंची है
कइयों के पास तीलियाँ हैं.. .
ये सभी उन्हीं के वंशज हैं
जिन्होंने तब लाशों का खुद
या तो व्यापार किया था, या
इस तिज़ारत की दलाली की थी
तबभी सिर गिनते थे, आज भी सिर गिनते हैं..
बेहद सार्थक पंक्तियाँ आदरणीय सौरभ सर...........बधाई स्वीकारें......
आदरणीय सौरभ जी, शब्द व भाव अन्दर तक झकझोर कर रख देने वाले हैं...
पर यह मतिमूढ़, वस्तुतः किस वर्ग को संबोधित कर रहा है, यह प्रश्न पाठक को कुछ उलझाता है,
क्या यह आम जनता है या इसमें पूरा वह समूह है, जो जिहाद की चंगारी से यदा कदा मुल्कों को झुलसाता रहा है, या कुछ स्वयं में उलझे हुए क्रांतिकारी हैं, या गद्दार नेता समूह है.... या फिर ये सभी हैं, जो अपनी अपनी ऋणात्मक कारस्तानियों से समाज को दिग्भ्रमित करते रहते हैं...
इस सुप्त भावनाओं को झकझोरती रचना हेतु हार्दिक बधाई, सादर.
.........मतिमूढ़
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