2012 में 15 अगस्त को भारतवासी अपनी आजादी के 66वें वर्ष में प्रवेश का जश्न मना रहे है, वही साथ ही उनके मन में यह प्रश्न भी कौंध रहा है कि इस प्रकार आधी-अधूरी आजादी के क्या मतलब। जबकि सच यह है कि आजादी आधी-अधूरी नहीं, बल्कि पूरी है। लेकिन जब मानसिकता ही गुलामी वाली हो तो कोई क्या कर सकता है। गुलामों को अगर शारीरिक तौर पर आजाद भी कर दिया जाए, तो भी वह जी-हुजूरी में इतने मग्न होते है कि उनको समझाना ही असंभव है कि वह आजाद हो गए है। अगर हम पूरी तरह से आजाद न होते तो क्या दिल्ली में लाखों लोग धरना-प्रदर्शन कर सकते थे। क्या हम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपने विचारों को एक-दूसरे तक पहुंचा सकते थे। क्या समाचार पत्रों, न्यूज चैनल्स पर अपनी बात कह सकते थे। क्या किसी को भी सरेआम कुछ भी कह सकते थे। क्या यह सच नहीं है अपनी सरकार बनाने के लिए अपने प्रतिनिधियों के चुनाव का अधिकार हमारे पास ही है। हर नागरिक को अपनी बात कहने की पूरी आजादी है। अगर हम गुलाम होते तो क्या यह सब संभव था, नहीं। हम बाहरी तौर पर आजाद हो गए, लेकिन अपनी मानसिकता को नहीं बदल पाए। हम जानते है कि हमारा नेता पूर्ण रूप से भ्रष्ट हो चुका है, लेकिन हम उसको दोबारा से चुनाव में जितवा देते हैं क्यों? आजाद भारत में आजादी से रहने के लिए अपने अधिकारों की बातें तो खूब करते है, लेकिन अपने कर्तव्यों का पालन ईमानदारी से करने में हमको शर्म आती है। जिसका परिणाम जब हमारे सामने आता है तो वह सिर्फ दुःखदायी ही होता है। आजादी के बाद से अगर हर भारतवासी ने ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन किया होता है तो क्या हम लंदन ओलंपिक से दो चार स्वर्ण पदक पर नहीं ला सकते थे। क्या असम में हिंसा भडक सकती थी। क्या हमारे नेता भ्रष्ट होते है। नेताओं को जी भर कर कोसने से अच्छा है कि अपने वोट के अधिकार का प्रयोग पूरी ईमानदारी से कर लिया जाए। सच मानिए जिस भारतवासियों ने अपने वोट का प्रयोग पूरी ईमानदारी से कर दिया, उसी दिन हमारे देश की तस्वीर बदल जाएगी। खुशी इस बात की है कि हमको अपने संपूर्ण विकास के लिए पूरी आजादी मिली हुई है, बस यह हमारे पर निर्भर पर करता है कि आखिर हम चाहते क्या है?
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हम बाहरी तौर पर आजाद हो गए, लेकिन अपनी मानसिकता को नहीं बदल पाए। हम जानते है कि हमारा नेता पूर्ण रूप से भ्रष्ट हो चुका है, लेकिन हम उसको दोबारा से चुनाव में जितवा देते हैं क्यों?,सार्थक प्रश्न ,वोट बिक्तें है यहाँ आदरणीय हरीश जी ,बढ़िया आलेख ,बधाई
पैसे कि लालसा में बिक रहा इंसान वोट देने के लिए और लालसा इस लिए कि निर्धनता अधिक है निर्धनता क्यूँ है क्यूंकि प्रशासन कि योजनायें ठीक नहीं हैं भ्रष्टाचार में लिप्त है सरकार बस यही चक्र घूम रहा है और आजादी के मायने खो रहा है -----बहुत सार्थक सारगर्भित आलेख --बधाई हरीश जी
गुलामों को अगर शारीरिक तौर पर आजाद भी कर दिया जाए, तो भी वह जी-हुजूरी में इतने मग्न होते है कि उनको समझाना ही असंभव है कि वह आजाद हो गए है।
आपकी प्रस्तुत अभिव्यक्ति सहज, सारगर्भित तथा विन्दुवत् हैं, आदरणीय हरीशजी. बहुत ही सधे शब्दों में आपने करोड़ों संवेदनशील लोगों के मन की बात कह डाली है. इस संक्षिप्त किंतु गहन अभिव्यक्ति के लिये हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय हरीश भट्ट जी मै आपके कथन से पूर्ण रूपेंण सहमत हूँ
आम आदमी का मानसिक प्रवाह किस ओर बढ़ेगा इसे समझ पाना कठिन है
कब सच्चाई सबसे आगे की भेड़ बनेगी
क्योंकि सब भेड़ चाल ........में चलने की आदी हैं
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