आज़ादी
मेरे देश की आज़ादी
चीख रही थी
लाउड स्पीकर से
ऐ मेरे वतन के लोगो
ऐ मेरे प्यारे वतन
बहरे सुन रहे थे
गूंगे गुनगुना रहे थे
अंधे देख देख विश्मित हो रहे थे
लाल लाल शोलों से घिरा
एक दरख्त
कुछ लोग चढ़े हुए
हरे नीले पीले लाल
हाँ लाल लाल लाल
उस काले से दरख्त पे
सुर्ख लाल पत्ते
जिनकी नोंको से टपक रही थी
शराब सी शबनम
टप टप- टप टप
घेरा डाले बैठे से
बाज़ चील कौए
डाल डाल शातिर उल्लू
झूलों में झूलती थी
अर्धनग्न अप्सराएं
चारों और परिकृमा करती थी
पश्चिमी धुन गुनगुनाती थी
संग दिव्य अधनंगे पुरुषों के साथ
वहीँ झूलती थी लाशें
गले में फंदे डाले
वृद्ध लाशें
घूँघट लिए
शर्म समेटे
बिलखती चीखती
यातनाएं सहती
भेडिये उस दरख्त को
दे रहे थे पानी
हर ओर
सन्नाटा सा पसरा था
ढेर लगे थे
जिन्दा लाशों के
एहसासों के तार तार
कपड़ों को लपेटे
नंग धुडंग फिर रहीं थीं लाशें
हर ओर हर ओर
काला दरख्त
लाल सुर्ख पत्ते
खिल खिल उठते
भयावह तीक्ष्ण स्वरों के उपरान्त
निकली दर्दनाक कराहों से
बिलबिलाते क्रंदन से
भेडिये उड़ेलते थे उनमे
पानी पानी पानी
और आज़ादी फिर भी
चीखती रही
लाउड स्पीकर से
ऐ मेरे वतन के लोगो
ऐ मेरे प्यारे वतन
और उस दरख्त की साखें
फैलती थी विस्तृत
आसमान पे
उसे सींचने वाले
उंचाई पे थे
उसपे चढ़े हुए
गूंगे बहरे अंधे
लुत्फ़ लेते
भयानक तीक्ष्ण स्वरों से
बिखरी तितर बितर हुई
लाल माटी का
उस माटी से
भेडिये निकाल लाते
काले दरख्त को सींचने पानी
लाल पानी
खिल उठते इक बार फिर
पानी पड़ते ही
लाल सुर्ख पत्ते
काला दरख्त
और चीखती आज़ादी
आँख खुलते ही
पता चला मुझे
सपने कभी कभी सच भी होते हैं
संदीप पटेल "दीप"
Comment
और आज़ादी फिर भी
चीखती रही
लाउड स्पीकर से
ऐ मेरे वतन के लोगो
ऐ मेरे प्यारे वतन
और उस दरख्त की साखें
फैलती थी विस्तृत
आसमान पे
उसे सींचने वाले
उंचाई पे थे
उसपे चढ़े हुए
गूंगे बहरे अंधे
लुत्फ़ लेते
भयानक तीक्ष्ण स्वरों से,मार्मिक रचना किन्तु सत्य आदरणीय संदीप जी
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