प्रेम कसूरी उर बसै, वन उपवन मत भाग ,
मृग दृग अन्तः ओर कर, महक उठेंगे भाग ll1ll
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आत्मान्वेषण है सहज, यही मुक्ति का द्वार,
बाहर खोजे जग मुआ, भीतर सच संसार ll2ll
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पूरक रेचक साध कर, जो कुम्भक ठहराय ,
द्विजता तज अद्वैत की, सीढ़ी वो चढ़ जाय ll3ll
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वर्तमान ही सत्य है, शाश्वत इसके पाँव ,
नित्यवान के शीश पर, वक्त घनेरी छाँव ll4ll
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भूत बसे नहिं भविष जो, वर्तमान रम जाय ,
शुद्धोहं शुद्धो अहम् , राग वही मन गाय ll5ll
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नित्यता और शुद्धता, जिस उर तह रम जाय,
निर्भेदी निर्मोह वह, ब्रह्म ज्ञान को पाय ll6ll
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ब्रह्म ज्ञान अद्वैत है, हर कण एक समान ,
मुक्ति द्वार पहुँचा वही, जो साँचा विद्वान ll7ll
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Comment
इस दोहावली में निहित कथ्य को सराहने हेतु हार्दिक आभार आ. अशोक कुमार रक्ताले जी
प्रेम कसूरी उर बसै, वन उपवन मत भाग ,
मृग दृग अन्तः ओर कर, महक उठेंगे भाग ll1ll
बहुत सुन्दर संदेशात्मक दोहों के लिए बधाई स्वीकार करें आद. प्राची जी.
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,
प्राण श्वसन आयाम से, पाता जाता त्राण
शब्द मौन के द्वार पर, पाता चिर निर्वाण.. .
सघन-गहन हर भाव है, हर दोहा अति शुद्ध
उतना ही है कथ्य भी, दीखा हमें प्रबुद्ध .. .
बधाई व हार्दिक शुभकामनाएँ, डॉ. प्राची !
कुमार गौरव जी यह दोहावली आपको पसंद आई इस हेतु आभारी हूँ .
सुन्दर दोहावली रची आपने आदरणीया प्राची जी....हार्दिक बधाई स्वीकारें.......
इस दोहावली निहित भावार्थों को मान देने हेतु हार्दिक आभार आ. संदीप द्विवेदी जी
बहुत ही सुन्दर दोहावली आदरणीया! निश्चय ही सच्चा विद्वान ही मुक्ति के द्वार तक पहुँच सकता है! हार्दिक बधाई आपको!
यह दोहावली आपको प्रभावित कर सकी, इस हेतु मैं आपकी आभारी हूँ आ. फूल सिंह जी .
आपको यह रचना पसंद आयी, ये मेरे लिए ख़ुशी की बात है. सदभाव सम्प्रेषण हेतु हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लाडिवाला जी
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