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ये कहाँ खो गई इशरतों की ज़मीं;
मेरी मासूम सी ख़ाहिशों की ज़मीं; (१)

फिर कहानी सुनाओ वही मुझको माँ,
चाँद की रौशनी, बादलों की ज़मीं; (२)

वक़्त की मार ने सब भुला ही दिया,
आसमां ख़ाब का, हसरतों की ज़मीं; (३)

जुगनुओं-तितलियों को मैं ढूंढूं कहाँ,
शह्र ही खा गए जंगलों की ज़मीं; (४)

दौड़ती-भागती ज़िंदगी में कभी,
है मुयस्सर कहाँ, फ़ुर्सतों की ज़मीं; (५)

गेंहू-चावल उगाती थी पहले कभी,
बन गई आज ये असलहों की ज़मीं; (६)

क्या बताऊँ मैं 'वाहिद' तमन्ना कोई,
अब तलक दूर है मन्नतों की ज़मीं; (७)

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Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 10:22am

धन्यवाद योग्यता जी!

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 10:22am

शंसा के चंद शब्दों हेतु आपका आभार आदरणीया रेखा जी!

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 10:21am

सराहना हेतु हार्दिक धन्यवाद डॉ. साहिबा!

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 10:21am

आपका हार्दिक आभार श्री फूल सिंह जी!

Comment by वीनस केसरी on September 4, 2012 at 12:35am

भाई संदीप जी आपने आज तृप्त किया है
कहन और शिल्प ने जो दिलकश समां बनाया है उसमें पाठक खो न जाये तो पत्थर दिल ही होगा
आपकी ग़ज़ल को पढते पढते मैं आल टाईम फेवरेट शेर गुनगुना उठा

क्या बताऊँ सफर उसके बारे में मैं
मैंने सोचा उसे सोचता रह गया
- अंकित सफर

आज आपके अशआर भी कुछ ऐसी ही कैफियत दे गए
जिनको पढ़ो तो पढते ही रहो

जिंदाबाद भाई
ऐसे ही लिखते रहे
आमीन


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 4, 2012 at 12:12am

मतला-मक्ता और पाँच निराले अश’आर !..  वाह !!

भाई संदीपजी, आपकी मेहनत और आपकी भाव-दशा, सर्वोपरि, आपका नैरंतर्य अभिभूत करता है. आपने बह्र को बहुत ही सधे अंदाज़ में निभाया ही है, क्या रदीफ़ लिया है ! वाह !!

किस एक की कहूँ ? मतला तो सुन्दर बना ही है, पहले शेर में जिन मायनों में चाँद और बादल की चर्चा हुई है वह मुग्ध कर गयी.  लेकिन जिन अश’आर ने देर तक धुन बनाये रखा, वे हैं -

जुगनुओं-तितलियों को मैं ढूंढूं कहाँ,
शह्र ही खा गए जंगलों की ज़मीं; (४)

गेंहू-चावल उगाती थी पहले कभी,
बन गई आज ये असलहों की ज़मीं; (६)

हृदय से बधाई स्वीकार करें ...


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 3, 2012 at 11:22pm

रदीफ़ बहुत ही टेढ़ा चूना था भाई, किन्तु निर्वहन उतना ही सफलता पूर्वक किया, बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल पढ़ी है, बधाई स्वीकार करें |

Comment by Yogyata Mishra on September 3, 2012 at 9:38pm

beautiful...!!!

Comment by विवेक मिश्र on September 3, 2012 at 7:41pm

वाह संदीप भाई.. जवाब नहीं. बेहतरीन कहन. मतले से शुरू हुआ जादू, मकते तक बराबर पहुंचा है. और फिर ये दो मिसरे तो सीधे दिल तक पहुँचते हैं.
/आसमां ख़ाब का, हसरतों की ज़मीं/

/है मुयस्सर कहाँ, फ़ुर्सतों की ज़मीं/
दिली दाद कबूल करें.

Comment by Rekha Joshi on September 3, 2012 at 6:26pm

उम्दा गज़ल पर हार्दिक बधाई संदीप जी 

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