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जानूं नहीं ये मेरी उलझन
कहां ठिकाना पाएगी
कबतक जीवन यूं ही मुझको
चौराहों तक लाएगी

जिसको भी आवाज लगाई
वही मिला घबराया सा
घनी धुंध की परत लपेटे
सुबह भी था कुम्‍हलाया सा

जाने कौन गढ़े जा रहा
दीवारों पर ठिगने साए
खोह-कन्‍‍दरा-तमस छुपाके
नीले पड़ गए हमसाए

स्‍वर्ण छुआ तो राख मिली
राई-रत्‍ती भी खाक मिली
बस कोहरे ही रह गए हमारे
फूलों में भी आग मिली

जो करीब थे दूर हुए
सुख के पल कर्पूर हुए
शेष बची जो थोड़ी यादें
वो ही अब नासूर हुए

जाने कबतक ठिठुरेंगें सपने
ये रात कहां ले जाएगी
उमस भरी ये बेचैनी क्‍या
गुलशन नया बसाएगी ?

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Comment

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Comment by Rekha Joshi on September 14, 2012 at 10:46am

जाने कबतक ठिठुरेंगें सपने
ये रात कहां ले जाएगी
उमस भरी ये बेचैनी क्‍या
गुलशन नया बसाएगी ?,अति सुंदर अभिव्यक्ति राजेश जी ,बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 14, 2012 at 10:30am

वाह वाह वाह राजेश कुमार झा जी दिल बाग़ बाग़ हो गया रचना पढके आपकी दो व्याकरण त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना चाहूंगी उनको दुरुस्त कर लें तो बस क्या कहने मजा आ जाएगा रचना में (1) ---जीवन क्यूँ की पुर्लिंग है इसलिए दूसरी पंक्ति में क्रिया में सुधार करना होगा जैसे ----यदि आप उलझन की बात अंत तक कर रहे हैं तो कह सकते हैं --कब तक जीवन पर्यंत/भर  मुझको चौराहों तक लाएगी  ---यदि आप जीवन की बात कर रहे हैं तो कह सकते हैं कब तक जिन्दगी मुझको  चौराहों तक लाएगी

(२) ----दूसरे पद में इसी तरह सुबह क्यूंकि स्त्रीलिंग है उसका वाक्य बदलना पड़ेगा जैसे ---सुबह की जगह सूरज कर सकते हैं सूरज भी था कुम्हलाया  सा |  अगर इस सुबह को पहले व्यक्ति विशेष से जोड़ रहे हैं तो होगा ---सुबह में था कुम्हलाया सा  

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 13, 2012 at 8:39pm

राजेश कुमार झा जी, सुन्दर अभिव्यक्ति है, भावनाओं को संप्रेषित करने का एक अच्छा माध्यम काव्य होता है, आप रचना कर्म में सफल हैं, बहुत बहुत बधाई इस रचना पर |

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 13, 2012 at 3:10pm

उमस भरी ये बेचैनी क्‍या
गुलशन नया बसाएगी ?


सुंदर रचना श्री राजेश कुमार झा जी 
उमस हटेगी भोंर के पहली किरण से 
गुलशन में खुशबु महकाएंगी -लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला 

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