जानूं नहीं ये मेरी उलझन
कहां ठिकाना पाएगी
कबतक जीवन यूं ही मुझको
चौराहों तक लाएगी
जिसको भी आवाज लगाई
वही मिला घबराया सा
घनी धुंध की परत लपेटे
सुबह भी था कुम्हलाया सा
जाने कौन गढ़े जा रहा
दीवारों पर ठिगने साए
खोह-कन्दरा-तमस छुपाके
नीले पड़ गए हमसाए
स्वर्ण छुआ तो राख मिली
राई-रत्ती भी खाक मिली
बस कोहरे ही रह गए हमारे
फूलों में भी आग मिली
जो करीब थे दूर हुए
सुख के पल कर्पूर हुए
शेष बची जो थोड़ी यादें
वो ही अब नासूर हुए
जाने कबतक ठिठुरेंगें सपने
ये रात कहां ले जाएगी
उमस भरी ये बेचैनी क्या
गुलशन नया बसाएगी ?
Comment
जाने कबतक ठिठुरेंगें सपने
ये रात कहां ले जाएगी
उमस भरी ये बेचैनी क्या
गुलशन नया बसाएगी ?,अति सुंदर अभिव्यक्ति राजेश जी ,बधाई
वाह वाह वाह राजेश कुमार झा जी दिल बाग़ बाग़ हो गया रचना पढके आपकी दो व्याकरण त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना चाहूंगी उनको दुरुस्त कर लें तो बस क्या कहने मजा आ जाएगा रचना में (1) ---जीवन क्यूँ की पुर्लिंग है इसलिए दूसरी पंक्ति में क्रिया में सुधार करना होगा जैसे ----यदि आप उलझन की बात अंत तक कर रहे हैं तो कह सकते हैं --कब तक जीवन पर्यंत/भर मुझको चौराहों तक लाएगी ---यदि आप जीवन की बात कर रहे हैं तो कह सकते हैं कब तक जिन्दगी मुझको चौराहों तक लाएगी
राजेश कुमार झा जी, सुन्दर अभिव्यक्ति है, भावनाओं को संप्रेषित करने का एक अच्छा माध्यम काव्य होता है, आप रचना कर्म में सफल हैं, बहुत बहुत बधाई इस रचना पर |
उमस भरी ये बेचैनी क्या
गुलशन नया बसाएगी ?
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