आज पैंतीस साल बाद उसकी आवाज सुनी
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कुमार गौरव अजीतेंदु जी आपने भी बहुत अच्छा शीर्षक सुझाया लगता है हिंदी की परीक्षा में इस प्रश्न पर जरूर बाजी मर लेते होंगे
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लडिवाला जी आप सही कह रहे हैं ये एक अवर्णनीय सुखद अनुभूति होती है इतने दिनों बाद किसी अपने अभिन्न दोस्त से मिलकर
आदरणीय गणेश सर.....ये तो आपने सही कहा की मार्क भी वहीं सोलिड मिलता था.........अब देखता हूँ की यहाँ आदरणीया राजेश जी कितने नंबर देती हैं :)))))
///ये शीर्षक ढूँढवाने का आइडिया आपको कहाँ से आ गया.....बचपन में जब स्कूल में परीक्षा होती थी तो हिंदी के पेपर में ये शीर्षक ढूँढने वाला प्रश्न ही मुझे सबसे ज्यादा बोरिंग लगता था///
कुमार गौरव जी, लेकिन वही पर सोलिड मार्क भी उठता था, क्योंकि कुछ भी शीर्षक रख ( विषय के विपरीत नहीं) दो नंबर मिलना ही मिलना था |
आदरणीया राजेश कुमारी जी, बचपन के दिन, बचपन की बातें,और बचपन के दोस्त हमें अक्सर याद आते रहतें हैं, उसी क्रम में यदि कोई प्रिय दोस्त मिल जाय तो क्या कहने, वही मस्ती, वही ताजगी, वही शरारत | आपकी ख़ुशी हम सभी समझ सकते है बहुत बहुत धन्यवाद इन यादों को सबके साथ साँझा करने पर | मुझे तो इसका शीर्षक "यादों की डोर" ठीक लगता है |
आदरणीया,
वास्तविक जीवन के घटनाक्रम पर कुछ कह पाना मेरे वश की बात नहीं किन्तु जो सुखद अनुभूति प्राप्त हुई उसके क्या कहने! आपके कहे अनुसार शीर्षक सुझा रहा हूँ.. --> चौदहवीं सीढ़ी के समोसे की क़सम! , सादर,
एक बात और........ये शीर्षक ढूँढवाने का आइडिया आपको कहाँ से आ गया.....बचपन में जब स्कूल में परीक्षा होती थी तो हिंदी के पेपर में ये शीर्षक ढूँढने वाला प्रश्न ही मुझे सबसे ज्यादा बोरिंग लगता था :))))))
आदरणीया राजेश जी........चूँकि यह वार्तालाप वास्तविक है अतः कोई मात्र औपचारिक बात तो इसपर कहना उचित नहीं होगा किन्तु जितना मैं इस पूरी बातचीत को पढने के बाद समझ सका हूँ उसके बाद यही कहना चाहता हूँ की दरअसल जो भाव इसमें उभर कर आये हैं उनके पीछे आपका अपनी बचपन की मित्र के प्रति तथा आपकी मित्र का आपके प्रति जो आत्मीय लगाव है उसका एक बहुत बड़ा योगदान है........ये आत्मीय लगाव वो चीज है जो समय के साथ कभी पुराना नहीं होता बल्कि दिल के किसी कोने में अपनी ताजगी और गर्माहट के साथ सदा-सदा मौजूद रहता है........अगर ऐसा नहीं होता तो न ही आपकी मित्र आपको फोन करती और न ही उनका फोन आने पर इतने पुराने दोस्त से कोई बात करने में आपको रूचि होती.....और न ही आप उन्हें मिलने के लिए आमंत्रित करती........यहाँ तक की आपदोनो के बीच मौजूद दुनियावी फासले भी यहाँ अप्रासंगिक हो गये.......अतः मेरे विचार से तो इसका शीर्षक " आत्मीय लगाव " होना चाहिये.........
जी सीमा जी आप सही कह रही हैं कितनी देर तक हम बचपन की बातें करते रहे एसा लगा अपने बचपन के दिन लौट आये
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