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ये कहाँ हैं हम ?/गीत

खिलखिलाती सिसकियों का हर तरफ ही शोर है
भीड़ में तन्हाइयों की भीड़ चारों ओर है
ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?

छू रहा मानव सफलता के चमकते नव शिखर
प्रकृत नियमों को विकृत करता ये कैसा है सफर
है सभी कुछ पर अधूरी,
हर निशा हर भोर है

ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?

कितनी परतों में दबा है आज का ये आदमी
अब कहाँ किरदार सच्चे अनृत की है तह जमी
स्वार्थ आरी नेह बंधन,
कर रहीं कमज़ोर हैं

ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?

है धुआँ आँखों में रिश्तों की सुलगती आह का
टूटते अनुबंधों का और टिमटिमाती चाह का
उच्चाकांक्षा की चमक में,
तिमिर ही घनघोर है

ये कहाँ हैं हम ?
क्या यही थे हम ?

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 19, 2012 at 1:18pm

//है धुआँ आँखों में रिश्तों की सुलगती आह का
टूटते अनुबंधों का और टिमटिमाती चाह का//

बहुत ही सुन्दर गीत, भावों से युक्त एक एक शब्द रचना की जान है, बहुत बहुत बधाई आदरणीया सीमा जी |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 19, 2012 at 12:49pm

सीमा जी बहुत ही भावप्रधान गीत लिखा है अति सुन्दर 

है धुआँ आँखों में रिश्तों की सुलगती आह का 

टूटते अनुबंधों का और टिमटिमाती चाह का
उच्चाकांक्षा की चमक में,
तिमिर ही घनघोर है-----ये पंक्तियाँ दिल को छूती हैं 

 

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