न जाने कबसे,
जारी है ये वहशत/
ये खिलवाड़ लफ़्ज़ों से,
न जाने कब छुआ था,
कागज़ का बदन स्याही से मैंने?
उसके जाने के बाद तो नहीं!
उसके मिलने से पहले भी नहीं!
वहशत है तो,
आगाज़ खुशियों से हुआ होगा/
शायद तब...जब
उसने नज़रों से छुआ होगा/
लब्ज़ बस रास्ते ही होंगे,
मंजिल बस वो होगी,
अहसास बेताब होंगे/
हसरतें मचतली होंगी/
दिल बहकता होगा,
धडकनें संभलती होंगी/
बहुत वक़्त बीत गया है
बहुत सफ़र बीत गया है
याद भी नहीं मुझे
न जाने कब कर ली थी दोस्ती
इस तन्हाई से मैंने
न जाने कब छुआ था
कागज़ का बदन स्याही से मैंने.....
-पुष्यमित्र उपाध्याय
Comment
बहुत नयापन और ताज़गी भरी रचना ....बधाई पुष्यमित्र जी
सुन्दर प्रस्तुति
//न जाने कब छुआ था,
कागज़ का बदन स्याही से मैंने?//
बहुत खूब ख्याल, बधाई आपको.
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