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तुम भी होगे शायद परिचित...

तुम भी होगे शायद परिचित
शब्द, मौन के इन झगड़ों से/
शब्द स्वयं को
मौन स्वयं को
किन्तु समर्पित
दोनों....तुमको

मौन कहे...तुम समझोगे
शब्द कहें...मैं समझा दूं
दोनों ही लेकिन ये चाहें...कैसे भी तुमको पा लूँ

मौन कहे तुम ना लौटोगे,
शब्द कहें आवाज़ तो दूं
दोनों ही पर चाह करें ये...हाथ तुम्हारा थाम तो लूँ

इसी शोक से, इसी शोर से
इन प्रश्नों के उठे जोर से
तुम भी व्यथित हुए तो होगे
मन भावों की इन रगड़ों से

तुम भी होगे शायद परिचित
शब्द, मौन के इन झगड़ों से.....

-पुष्यमित्र उपाध्याय

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Comment by Aditya Kumar on September 26, 2012 at 3:37pm

very nice


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 24, 2012 at 7:12pm
शब्द और मौन के झगडे... अंतर्मन में ...वाह! \
हार्दिक बधाई इस सुन्दर अभिव्यक्ति पर आ. पुष्यमित्र जी
Comment by राज़ नवादवी on September 24, 2012 at 1:06pm

शब्द और मौन के द्वंद्व की धुरी तो स्वयं में है परन्तु उसे घूर्णन की शक्ति कोई और दे रहा है- 

शुन्दर अभिव्यक्ति है आपकी भाई पुष्यमित्र जी! बधाई. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 24, 2012 at 12:54pm

कविता की सार्थकता संप्रेषण में है. बहुत-बहुत बधाई.

Comment by Gul Sarika Thakur on September 24, 2012 at 12:14pm

achchhee Mimansa ...

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 24, 2012 at 5:40am

शब्दों की सुन्दर अभिव्यक्ति पुष्यमित्र इपध्याय जी,बधाई 

 हम तो परिचित अब 

तुम्हारे मौन से 

तुम्हारी मौन स्वीकृति से 

श्यात तुम भी परिचित 

मेरे शब्दों से 'गुरु ज्ञान दोहों' से

दोनों परिचित परस्पर 

अब मौन से भी शब्दों से भी 

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