लाख झूठ चाहे स्वर बोलें,
मौन मगर सच कह जाये |
प्रेम अगन को बांधो कितना,
धुँआ तो जग में रह जाये ||
ये प्रेम हुआ ये कृष्ण हुआ,
न पहरों से है झुक पाता|
जो बन सुगंध हो चुका व्याप्त,
कैसे हाथों में रुक जाता||
तुम कई लगा लेना बंधन,
बहना है इसको बह जाये|
प्रेम अगन को बांधो कितना,
धुँआ तो जग में रह जाये||1||
बीज घृणा के बोने वाले,
भ्रम के कितने यंत्र करोगे|
जिस आश्रय में जीवित है जग,
क्या उसको परतंत्र करोगे||
तोड़ ही दो अब घृणा का घट वो,
ये भीति महल भी ढह जाए|
प्रेम अगन को बांधो कितना,
धुँआ तो जग में रह जाये||२||
-पुष्यमित्र उपाध्याय
Comment
aap sabhi mitron ka kotishah dhanyavaad ....aapna sneh mere liye prernadayak hai......aapke aashish ki humesha kaamna karta hoon...yu hi is anuj par prem bnaye rakhiye....
तोड़ ही दो अब घृणा का घट वो,
ये भीति महल भी ढह जाए|
प्रेम अगन को बांधो कितना,
धुँआ तो जग में रह जाये||,खूबसूरत रचना पुष्यमित्र जी ,हार्दिक बधाई
अदभुत रचना पुष्यमित्र उपाध्याय जी , बहुत बधाई
ये प्रेम हुआ ये कृष्ण हुआ,न पहरों से है झुक पाता|
जो बन सुगंध हो चुका व्याप्त,कैसे हाथों में रुक जाता||
हार्दिक बधाई
//बीज घृणा के बोने वाले,
भ्रम के कितने यंत्र करोगे|
जिस आश्रय में जीवित है जग,
क्या उसको परतंत्र करोगे||//
बहुत ही सार्थक रचना, एक सन्देश की लकीर खीचने में कामयाब है यह रचना, बहुत बहुत बधाई पुष्यमित्र जी, उम्मीद है कि आगे भी आपकी रचनाओं एवं अन्य सदस्यों की रचनाओं पर आपके बहुमूल्य विचारों से हम सभी लाभान्वित होते रहेंगे |
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