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(चार चरण : विषम चरण १३

मात्रा व जगण निषेध / सम चरण ११ मात्रा)

 

आदिशक्ति है नारि ही, झुक जाते भगवान.  

नारी सबकी मातु है, सब जन पुत्र समान..

 

शक्तिरूप में ही वही, नहीं अल्प अभिमान. 

परमेश्वर के रूप में, पिय को देती मान..

 

ताने सहकर नित्य ही, बनी रहे अनजान. 

सदा समर्पित भाव से, सबका रखती ध्यान..

 

जान बूझ बंधन बँधे, बचपन बाँधे पित्र.

यौवन में पिय बाँधते, जरा अवस्था पुत्र.. 

 

ईश्वर ही नर रूप में, नारी सब संसार.

पुरुषरूप मिथ्या यहाँ, छोड़ें भी तकरार.. 

 

नारी जग की स्वामिनी, जग का वह आधार.

हृदयस्थल  में  वास  है,  वंदन  बारम्बार..

_______________________________

--इं० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'

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Comment by राज़ नवादवी on October 8, 2012 at 7:42pm

आदरणीय अम्बरीश जी, आपका स्वागत है!

Comment by Er. Ambarish Srivastava on October 8, 2012 at 5:08pm

राज साहब, दोहों की सराहना के लिए कृपया हार्दिक आभार स्वीकारें  ! 

Comment by राज़ नवादवी on October 8, 2012 at 2:08pm

सही कहा आपने-

ईश्वर ही नर रूप में, नारी सब संसार.

पुरुषरूप मिथ्या यहाँ, छोड़ें भी तकरार.. 

ईश्वर ही एकमात्र पुरुष है. बधाई हो इस अच्छी रचना पे भाई अम्बरीश जी.

कृपया ध्यान दे...

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