हमने शेरों को ठिकाने दिये हैं
आज गीदड़ हमें डराने लगे हैं
जिनके हाथों में रहनुमाई दी थी
बस्तियाँ हमारी वो जलाने लगे हैं
जिन्हे धर्म का मतलब नहीं पता
लोग क़ाज़ी उन्हें बनाने लगे हैं
लूट-खसोट, धोखा जिनका ईमान
वो तहज़ीब हमको सिखाने लगे हैं
जो आए तो थे ख़बर हमारी लेने
हौंसला देख ख़ुद लड़खड़ाने लगे हैं
Comment
कृपया, भाई वीनस की जगह भाई वीनस जी पढ़ें लिखने में हुयी त्रुटि के लिए क्षमा चाहता हूँ ।
भाई वीनस आपकी दाद पाकर हम कृतज्ञ हुये
आपका बहुत आभार ।
बहुत कोशिश कर रहे है सीखने की पर अभी भी वज्न,और बह्र मे अटक जाते हैं
(आप हंसना मत कल ही पता चला की वज्न का माने मात्रा होता है)
कभी कभी टिप्स दे दिया कीजिये ताकि सीखने मे आसानी हो
वैसे गज़ल की कक्षा में शामिल हो गए हैं ।
openbooksonline के सभी कार्यकारी सदस्यों का जीतना आभार व्यक्त करे कम है ।आप लोग,
हम जैसे गज़ल के अंगूठा छाप लोगों का मार्गदर्शन कर रहे है, दिल से पुनः आभार ।
वाह वाह आदरणीय नादिर साहब समाज कि विसंगतियों को खूब रेखांकित किया आपने
जिनके हाथों में रहनुमाई दी थी
बस्तियाँ हमारी वो जलाने लगे हैं
जिन्हे धर्म का मतलब नहीं पता
लोग क़ाज़ी उन्हें बनाने लगे हैं
कथ्य की जितनी तारीफ़ करूं कम है
सादर
बहुत शुक्रिया संदीप जी
आभार।
वाह क्या बात है
बेहद खूबसूरत अंदाज
दाद क़ुबूल कीजिये
बहुत शुक्रिया,एवं आभार राजेश कुमारी जी ।
आप लोगों की दाद से लिखने की प्रेरणा मिलती है ।
नादिर खान जी एक अच्छी ग़ज़ल के लिए दाद कबूल करें
शुक्रिया आपकी ज़र्रानवाजी का.
हौसला अफजाई के लिए बहुत शुक्रिया राज़ भाई
हमने गज़ल लिखना इसी साल से शुरू किया है
पहले कविताएँ लिखा करते थे ।
इसलिये समझिए की गज़ल की अलिफ,बे सीख रहे है
उम्मीद है आप मार्गदर्शन बनाये रखेंगे ।
खूबसूरत मतला है-
//हमने शेरों को ठिकाने दिये हैं
आज गीदड़ हमें डराने लगे हैं//
बधाई हो. भाई नादिर साहेब.
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