मैं निर्मल ,निःस्वार्थ
प्रस्फुटित हुआ
एक अभिप्राय के निमित्त
हर लूँगा सबका अभिताप ,व्यथा
अपनी अनुकम्पा से
अलौकिक अभिजात मलय
के आँचल की छाँव में
श्वास लेकर बढ़ता रहा
कब मेरी जड़ों में
वर्ण, धर्म भेद मिश्रित
नीर मिलने लगा
कब वैमनस्य ,स्वार्थ परता
की खाद डलने लगी
पता ही नहीं चला
विषाक्त भोजन
विषाक्त वायु ,नीर
से मेरे अन्दर कसैला
जहर भरता गया
फिर जो ग्रहण किया
वो ही वितरित करने लगा
हर जगह जहरीले दीमक
पनपने लगे और मेरी ही
जड़ों को खोखला करने लगे
कब धरा शाई हो जाऊं
क्या पता उससे पहले
मैं ढूंढता हूँ उस ब्रह्मांड
के रचयिता को
जो ना जाने कहाँ छुप गया
मुझे भ्रमित करके
मेरे प्रयोजन की
राह अवरुद्ध करके
कहाँ है तू ?
मेरे मनस्ताप से मुझे मुक्त कर
आगे की राह दिखा |
जाते जाते कोई
नेक कर्म कर जाऊं
जितना गरल वितरित किया
वो वापस खुद ही पी जाऊं
आवाज दे कहाँ है
वो तेरी शक्ति ??
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Comment
हार्दिक आभार अशोक कुमार जी इस उत्साह वर्धन हेतु
फिर जो ग्रहण किया
वो ही वितरित करने लगा
जटिल समस्या किन्तु सरल भाव सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकार करें आदरेया राजेश कुमारी जी.
सादर आदरणीया .. .
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आपकी पारखी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया से रचना धन्य हुई ह्रदय से आभारी हूँ नवरात्र की शुभकामनाएं
व्यष्टि को समष्टि में परिवर्तित होने से वंचित करते कारणों पर आपका गहन चिंतन रचना में उभर कर आया है.
सादर शुभकामनाएँ..
हार्दिक आभार सतीश मापत पुरी जी नवरात्र की शुभकामनाएं
हार्दिक आभार वीनस केसरी जी नवरात्र की शुभकामनाएं
मानव - मन की विशद व्याख्या एवं प्रस्तुति के लिए बधाई राजेश कुमारी जी
आदरणीया,
मानव मन और 'सुभाव' की बहुत महीन पडताल करती सुन्दर काव्य प्रस्तुति के लिए बारम्बार बधाई स्वीकारें
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