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पुर-शुआ पुर-शुआ था हमारा शहर, रोशनी में नहाया हुआ था समाँ,
आज लेकिन न जाने ये क्या हो गया, हो गया है अँधेरा अँधेरा जवाँ।
हैं तवारीख में दास्तानें सभी, वक्त की मार से खाक में मिल गये,
जो जवाहर सजाते रहे ताज में, और ताबे रहा जिनके सारा जहाँ।
उल्फतों से यही हाय कहता रहा, मैं तुम्हारा बना हूँ सदा के लिये,
पर अचानक उसी ने गज़ब ये किया, चल दिया ठोकरें दे न जाने कहाँ।
बन्द कर के निगाहें भरोसा किया, जानो दिल भी जिन्हें दे दिये थे कभी,
ज़ख़्म उनसे हमें तल्ख ऐसे मिले, रह गई आज खामोश मेरी ज़बाँ।
हिज्र के दौर में खूब क़ाबू किया, हाय रुस्वाइयाँ फिर भी होती रही,
ग़म छुपाते रहे लाख पर्दों मे हम, दीदे नम से हुआ पर फसाना बयाँ।
वो जिगर में हमारे बसा रह गया, वो जुदा तो हुआ पर जुदा भी नहीं,
महफिलों में रहें या बियाबान में, वो जगह ही नहीं वो नहीं हो जहाँ।
अपने वादों पे कायम नहीं रह सके, तुम बदल से गये बात सच है मगर,
याद तुमको करेंगे लगातार हम, जब तलक है रगों में लहू ये रवाँ।
Comment
इमरान भाई बड़ी बहर में अच्छी ग़ज़ल काही है। दाद कुबूल करें !
हिज्र के दौर में खूब क़ाबू किया हाय रुस्वाइयाँ फिर भी' होती रही,
ग़म छुपाते रहे लाख पर्दों मे हम, दीदे नम से हुआ पर फसाना बयाँ।--बहुत सुन्दर आँखों से कुछ भी छुप नहीं सकता ---वाह खूबसूरत भावाभिव्यक्ति
अपने' वादों पे कायम नहीं रह सके तुम बदल से गये बात सच है मगर,
याद तुमको करेंगे मुसलसल यूँ' ही जब तलक है रगों में लहू ये रवाँ।
शानदार भाव बधाई.
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