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शाम घिरने से लेके सहर खिलने तक,
दर हवायें बजाती रही रात भर -- सुन्दर शे'र इमरान भाई..
//मैं वाकई यहाँ सक्रिय रहा, मैं पहले आयोजनों में भाग लिया करता था मगर जब 2 आयोजन छन्दाधारित हुए हैं मेरा पत्ता साफ हो गया,//
इमरानभाई, जब-जब आयोजन छंद आधारित नहीं हुए बल्कि मात्र एक आयोजन --’चित्र से काव्य तक’-- जो कि एक प्रतियोगिता भी है को शास्त्रीय छंद आधारित किया गया है. जबकि ’मुशायरा’ अपने नाम के अनुरूप अभी तक तरह पर आधारित एक इण्टरऐक्टिव नेचर का ‘ओन-लाइन मुशायरा है. अन्य सारे आयोजन अपनी प्रकृति के अनुरूप ही हैं.
ओबीओ पर इस बात का यथासंभव ध्यान रखा गया कि विशेषकर हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं को समान अवसर मिले ताकि सभी विधाओं पर बखूबी काम हो सके. कमसे कम पद्य प्रभाग में (जबकि गद्य में भी) शायद ही कोई विधा हो जिस पर रचनाकारों को प्रोत्साहन नहीं मिलता.
आगे, यह अवश्य ही रचनाकारों पर निर्भर करता है कि वे मंच को कितना समय दे पाते हैं और वस्तुतः कितनी संलग्नता से विधानुरूप रचनाकर्म कर पाते हैं.
यह अवश्य है, इमरान भाई, कि तथाकथित कई ’जानकारों’ को अवश्य ही ’झटके’ लगते हैं जब उन्हें विधानुरूप ’सीख’ मिलती है. देखा गया है कि अक्सर उदाहरणों में ’जानकार’ रचनाकार ’सीखने’ की जगह यह बर्दाश्त तक नहीं कर पाते कि उनको ’सीखने’ की भी आवश्यता है. जबकि नये रचनाकार अपनी संलग्नता और मनोयोग से बेहतर परिणाम ला रहे हैं.
यह तो आप भी अवश्य मानेंगे कि ओबीओ का उद्येश्य कभी किसी रचनाकार की हेठी करना नहीं, बल्कि साहित्य की विधाओं के मानकों के अनुरूप रचनाकर्म हेतु उत्साहित तथा प्रेरित करना रहा है.
आदरणीय,
सुन्दर भावाभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें
सादर
इमरान भाई, इधर आपकी लगातार मौज़ूदग़ी इत्मिनान कर रही है कि शायद आप अपनी व्यस्तता से आवश्यक समय निकाल पा रहे हैं.
इधर की अनुपस्थिति के पहले ग़ज़ल पर आपका बेहतर प्रयास होने लगा था. कोशिश कीजिये कि उसपर फिर से काम शुरु हो सके.
मतले को फिर से देखियेगा. क्या इता दोष तो नहीं बन रहा है.
ग़ज़ल के अश’आर २१२ २१२ २१२ २१२ के वज़्न पर बाँधे गये हैं लेकिन लगातार मात्राएँ गिराना थोड़ा कसक रहा है.
बाद मरने के भी एक हवा सरफिरी .. . इस मिसरे में एक को इक किया जाय न !
उसके कूचे से आई मेरे घर सबा,
उसकी खुशबू जगाती रही रात भर। bahut khoob
मैंने रब से भी कितनी ही फरियाद की,
एक तसल्ली ही मिलती रही रात भर। wah wah
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