मुक्तिका:
है यही वाजिब...
संजीव 'सलिल'
*
है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।
रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?
घर में भी बेघर रहोगे, चैन पाओगे नहीं,
आज यह, कल और कोई बाँह में गर चाहिए।।
चाक हो दिल या गरेबां, मौन ही रहना 'सलिल'
मेहरबां से हो गुजारिश- 'और कुछ फरमाइए'।।
आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।
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Comment
रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?
वाह वाह वाह !
मतले में ’नन्हें’ को आपने खूब बांधा है, आचार्यजी.
पुनः , सादर बधाइयाँ
जनाब संजीव सलिल जी,,,, खूबसूरत मुक्तिका के लिए बधाई ,,,आबे-जमजम की सभी ने चाह की,,,बहुत ख़ूब ,,,
बेहद उम्दा मुक्तिका है सर बधाई स्वीकारें
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