मुक्तिका:
हो रहे
संजीव 'सलिल'
*
घना जो अन्धकार है तो हो रहे तो हो रहे।
बनेंगे हम चराग श्वास खो रहे तो खो रहे।।
*
जमीन चाहतों की बखर हँस रही हैं कोशिशें।
बूंद पसीने की फसल बो रहे तो बो रहे।।
*
अतीत बोझ बन गया, है भार वर्तमान भी।
भविष्य चंद ख्वाब, मौन ढो रहे तो ढो रहे।।
*
मुश्किलों के मोतियों की कद्र कीजिए हुजूर!
हौसलों के हाथ माल पो रहे तो पो रहे।।
*
प्राण-मन से एक हुए, मिल न पाए गम नहीं।
दूर हुए तन-बदन, जो दो रहे तो दो रहे।।
*
सफेद चादरों के दाग, डामली सियासतें-
कोयलों से घिस-रगड़ धो रहे तो धो रहे।।
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गीत जागरण के सुन-सुना रहें हों लोग जब।
न फ़िक्र कर 'सलिल', जो शेष रो रहे तो रो रहे।।
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Comment
अतीत बोझ बन गया, है भार वर्तमान भी।
भविष्य चंद ख्वाब, मौन ढो रहे तो ढो रहे।।
सत्य हि है, सादर
गीत जागरण के सुन-सुना रहें हों लोग जब।
न फ़िक्र कर 'सलिल', जो शेष रो रहे तो रो रहे।।
शानदार
आदरणीय आचार्यजी, आपकी मुक्तिका भाव समृद्ध होती ही है, कभी-कभी ईऽऽऽ करवा देती है. :-))))
दो रदीफ़ों पर एक अच्छी मुक्तिका है. परन्तु, अपने अध्ययन हेतु सादर जानना चाहता हूँ कि यह किस हिसाब से बाँधी गयी है ?
घना जो अंधकार है तो हो रहे, तो हो रहे
बनेंगे हम चराग श्वास खो रहे तो खो रहे।।.. . १२ १२ १२ १२ १२ १२ १२ १२
प्राण-मन से एक हुए, मिल न पाए गम नहीं। .. २१ २१ २१ १२ २१ २१ २१ २
दूर हुए तन-बदन, जो दो रहे तो दो रहे।। ....... २१ १२ २ १ २ १२ १२ १२ १२
इसी तरह आगे की द्विपदियों में भी.. . मैं मात्राओं को गिरा-उरा कर उपरोक्त हिसाब से ही तक्तीह कर पाया हूँ. आप कृपया समझायें कि मैं कहाँ गलत हूँ.
सादर
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