गीत:
हर सड़क के किनारे
संजीव 'सलिल'
*
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
कुछ जवां, कुछ हसीं, हँस मटकते हुए,
नाज़नीनों के नखरे लचकते हुए।
कहकहे गूँजते, पीर-दुःख भूलते-
दिलफरेबी लटें, पग थिरकते हुए।।
बेतहाशा खुशी, मुक्त मति चंचला,
गति नियंत्रित नहीं, दिग्भ्रमित मनचला।
कीमती थे वसन किन्तु चिथड़े हुए-
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
चाह की रैलियाँ, ध्वज उठाती मिलीं,
डाह की थैलियाँ, खनखनाती मिलीं।
आह की राह परवाह करती नहीं-
वाह की थाह नजरें भुलातीं मिलीं।।
दृष्टि थी लक्ष्य पर पंथ-पग भूलकर,
स्वप्न सत्ता के, सुख के ठगें झूलकर।
साध्य-साधन मलिन, मंजु मुखड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
ज़िन्दगी बन्दगी बन न पायी कभी,
प्यास की रास हाथों न आयी कभी।
श्वास ने आस से नेह जोड़ा नहीं-
हास-परिहास कुलिया न भायी कभी।।
जो असल था तजा, जो नकल था वरा,
स्वेद को फेंककर, सिर्फ सिक्का धरा।
घर मकां हो गए किन्तु उजड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*
Comment
परम आदरणीय संजीव जी
सादर, बहुत सुन्दर यथार्थ को बयां करती रचना पर बधाई स्वीकारें.
आदरणीय आचार्यजी, इस रचना के माध्यम से संप्रेष्य संदेश को जिस गुरुता की दरकार थी वह पंक्तियों के शाब्दिक प्रवाह से मिली है. मैं प्रस्तुत गीत में कथ्य, तथ्य और शिल्प तीनों का अद्भुत सामञ्जस्य पा रहा हूँ और मुग्ध हूँ. ऐसे गीत इस मंच के स्तर को बहुगुणित करते हैं आचार्यजी.
२१२ २१२ २१२ २१२ की मात्रा पर आपने बढिया और संदेशपरक गीत साझा किया है कि जिसके स्वर की अनुगूँज देर तक धमनियों में हो रहे प्रवाह की आवृति के साथ कदमताल करती रहती है. वाह-वाह-वाह ! सादर बधाइयाँ.. .
आदरणीय सर जी, सादर
घर मकान पर उजड़े हुए.
वाह बधाई.
.बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति .
//जो असल था तजा, जो नकल था वरा,
स्वेद को फेंककर, सिर्फ सिक्का धरा।
घर मकां हो गए किन्तु उजड़े हुए //
खुबसूरत गीत आचार्य जी, अंतिम बंद मुझे अत्यधिक प्रभावित किया, बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर |
जो असल था तजा, जो नकल था वरा,
स्वेद को फेंककर, सिर्फ सिक्का धरा।
घर मकां हो गए किन्तु उजड़े हुए
हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,
धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....
*गीत का हर पद शानदार है ये पंक्तियाँ तो बहुत ही सुन्दर लगी बहुत बहुत बधाई सलिल जी इस शानदार गीत के लिए
चाह की रैलियाँ, ध्वज उठाती मिलीं,
डाह की थैलियाँ, खनखनाती मिलीं।
आह की राह परवाह करती नहीं-
वाह की थाह नजरें भुलातीं मिलीं।।
शुरु से ही इतने सुन्दर शब्द पिरोये हैं आपने सलिल साब , मन को अच्छे लगे
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