मुक्तिका:
है यही वाजिब...
संजीव 'सलिल'
*
है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।
रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?
घर में भी बेघर रहोगे, चैन पाओगे नहीं,
आज यह, कल और कोई बाँह में गर चाहिए।।
चाक हो दिल या गरेबां, मौन ही रहना 'सलिल'
मेहरबां से हो गुजारिश- 'और कुछ फरमाइए'।।
आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।
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Comment
आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।
अब शिव कहाँ से लाएं
गरल जिसे पिलायें
बधाई सर जी.
लतीफ़ जी, सौरभ जी, संदीप जी, महिमा जी, राजेश जी, बागी जी, अजय जी, वीनस जी, लक्षमण जी, अशोक जी, अरुण जी
आप सबने रचना को सरह कर उत्साहवर्धन किया हार्दिक धन्यवाद.
आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ बधाई स्वीकारें परम आदरणीय सलिल जी सादर.
श्रेष्ठवर सलिल जी
बेहतरीन मुक्तिका के लिए बधाई स्वीकारें
bahut hi achhi rachna ke liye badhayii
//आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए//
हंसकर जहर पीने के लिए तो भगवान नीलकंठ होना चाहिए , अच्छी मुक्तिका आचार्य जी, बधाई स्वीकार करें |
आबे-जमजम की सभी ने चाह की लेकिन 'सलिल'
कोई तो हो जो ज़हर के घूँट कुछ हँसकर पिए।।----इन पंक्तियों से आदरणीय सलिल जी वो गाना याद आ गया अपने लिए जियें तो क्या जिए ऐसे कितने लोग हैं जो दूसरों के लिए जीते हैं सब अपना सुख ही चाहते हैं ---बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ दूसरी ये भी बहुत पसंद आई --रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?-----सब जानते हैं फिर भी अपनी खुदगर्जी से बाज नहीं आते ।बहुत बहुत बधाई इस मुक्तिका के लिए
है यही वाज़िब ज़माने में बशर ऐसे जिए।
जिस तरह जीते दिवाली रात में नन्हे दिए।।
रुख्सती में हाथ रीते ही रहेंगे जानते
फिर भी सब घपले-घुटाले कर रहे हैं किसलिए?...
बहुत ही खुबसूरत गहन अभिवयक्ति ..
मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय /
बेहद सुन्दर मुक्तिका कही सर जी बहुत बहुत बधाई आपको
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