बह रही थी एक नदी मेरे सपने में
रह गयी फिर भी प्यासी सपने में
जी रही थी इस दुनिया में मगर
देखती थी दूसरी दुनिया सपने में
करती थी इंतेजार उसका दिनभर
आता था जो आंसू पोछने सपने में
यकीन था आएगा वो पूरा करने
कर गया था वादे, जो सपने में
ढूढती हूँ एक वही चेहरा भीड़ में
बस गया था अक्श जिसका सपने में
काश ।अब सूरज ना निकले कभी
'शुभ' देखती रहे हरवक्त उसे सपने में
Comment
आदरणीय विजय निकोर साहेब सराहना हेतु धन्यवाद
शुभ्रा जी,
मार्मिक भावनाएँ अच्छी लगीं।
विजय निकोर
Sunder prayas..prem se ot prot...achhi rachna
आदरणीय प्रदीप जी को धन्यवाद
डा प्राची जी को हौसलाफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
रुला के गया सपना मेरा
बहुत सुन्दर भाव युक्त रचना
बधाई,
आदरणीया शुभा जी
सादर
मासूम से भाव समेटे इस रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रिय शुभ्रा जी
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