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दो निरे ....

एक बच्चा था, अबोध, हमारे यहाँ की भाषा के उसे निरा कहते है| निरा अबोध बच्चा, अक्ल से कच्चा, दिल से सच्चा| एक दिन खेलते खेलते जाने कहाँ आ पहुचा, उसे नहीं पता था, उसने देखा कुछ लोग थे , अजीब दाड़ी टोपी लगाए, हँसते हुए, बांस की पंचटो के ढाँचे पर आटे की लेई से पतंगी कागज चिपकाते हुए| उसने देखा, कुछ बच्चे उस जैसे ही, निरे अबोध बच्चे, मदद कर रहे है अजीब दाड़ी टोपी वाले लोगे की, वो देखता रहा, बहुत देर तक देखता रहा, उसका दिल रंगीन कागजों में अटक गया था, वो चिपकाना चाहता था उस पतंगी कागज को, बांस की पंचटो के ढाँचे से, यकायक आगे बड गया, तभी किसी ने पूछा, "ये तुम हिंदू हो या मुस्लिम ??" बच्चा निरा अबोध था, उसे नहीं पता था क्या कहना चाहिए, फिर भी कुछ तो कहना था, उसने कहा, "मुस्लिम"| पता नहीं सामने वाले ने जवाब सुना या नहीं पर फिर  से पूछ लिया, "बेटा तुम्हारे पापा का क्या नाम है?" बच्चे को ये प्रश्न सहज लगा, उस में पट से कहा, " रौशन सिंह "| सभी ठहाका मार के हँस दिए| फिर उनमे से एक बोला, "चल भाग यहाँ से, नहीं तो तेरे पापा से शिकायत करेगें| बच्चा लौट आया, बच्चे का नाम मोहन था | कुछ दिनों बाद शहर में ताजिये निकले|

ठीक उसी वक्त आगे पीछे, उसी शहर में, उसी जगह के आसपास, एक और निरा अबोध बच्चा, अक्ल से कच्चा, दिल से सच्चा खेलते खेलते जाने कहाँ आ पहुचा, उसे नहीं पता था, उसने देखा कुछ लोग थे , अजीब दाड़ी टोपी लगाए, हँसते हुए, बांस की पंचटो के ढाँचे पर आटे की लेई से पतंगी कागज चिपकाते हुए| उसने देखा, कुछ बच्चे उस जैसे ही, निरे अबोध बच्चे, मदद कर रहे है अजीब दाड़ी टोपी वाले लोगे की, वो देखता रहा, बहुत देर तक देखता रहा, उसका दिल रंगीन कागजों में अटक गया था, वो चिपकाना चाहता था उस पतंगी कागज को, बांस की पंचटो के ढाँचे से, यकायक आगे बड गया, तभी किसी ने पूछा, "ये तुम हिंदू हो या मुस्लिम ??" बच्चा निरा अबोध था, उसे नहीं पता था क्या कहना चाहिए, फिर भी कुछ तो कहना था, उसने कहा, "हिंदू"|पता नहीं सामने वाले ने जवाब सुना या नहीं पर फिर  से पूछ लिया, "बेटा तुम्हारे पापा का क्या नाम है?" बच्चे को ये प्रश्न सहज लगा, उस में पट से कहा, "नूर महोम्मद"| सभी ठहाका मार के हँस दिए| फिर उनमे से एक बोला, "चल भाग यहाँ से, नहीं तो तेरे पापा से शिकायत करेगें| बच्चा लौट आया, बच्चे का नाम बिस्मिल्लाह था | कुछ दिनों बाद शहर में रावण दहन हुआ |

ठीक बीस साल बाद, उसी शहर में, उसी जगह के आसपास, दो दोस्त मिले, निरे और अबोध और  पहले ने दूसरे से पूछा, "सिगरेट लाया बिस्मिल्लाह??" दूसरे ने जवाब दिया " तू दारु लाया है मोहन?"

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Comment by अमि तेष on January 14, 2013 at 10:28am

शुक्रिया .........सौरभ जी ........ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 14, 2013 at 12:19am

जिस संजीदा तथ्य पर आपकी लघुकथा विकसित हुई है, भाई अमितेष जी, इसे प्रस्तुत करने में भी उतनी ही संज़ीदग़ी बरतनी थी. फिर भी कथा में अंतर्निहित संप्रेषणीयता बहुत कुछ स्पष्ट करती जाती है. समाज में संज्ञाओं के पीछे अदृश्य पुछल्ले की तरह चिपकी तथ्यहीनता पर आपकी कथा खूब ठहाके लगाती है. ताज़िये और रावण-दहन के प्रतीकों पर आपने बहुत कुछ साझा किया है.

इस प्रयास पर हार्दिक बधाई और अनेकानेक शुभकामनाएँ.

Comment by अमि तेष on January 12, 2013 at 11:01pm

शुक्रिया प्राची जी ....... विचार करने के लिए .........


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 12, 2013 at 2:16pm
समझ नहीं आ रहा कि इस लघु कथा पर क्या कहूं, बस ह्रदय कचुटाया सा है, और विस्मित सोच ही रही हूँ,कि कौन से सिरे कहाँ तक जाते हैं

इस अभिव्यक्ति के लिए बधाई अमितेश जी

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