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उड़ेल दिए क्या नमक के बोरे ,या चाँदी  की किरचें  बिछाई 

लटके यहाँ- वहां  रुई के गोले  क्या  बादलों   की फटी रजाई 

मति मेरी  देख- देख चकराई |

डाल- डाल पर  जड़े कुदरत ने जैसे धवल नगीने चुन- चुन कर  

लगता कभी- कभी  जैसे धुन रहे  रूई  को अम्बर में धुनकर  

 नग्न खड़े दरख्तों को किसने श्वेत- श्वेत पौशाकें  पहनाई 

 मति मेरी  देख देख चकराई |

सुन्न कम्पित  नीर दूधिया संग लेकर बहती  झेलम की धारा 

तटों पर श्वेत आइस क्रीम सी बिखरी शून्य हुआ तल का पारा   

 जाने किसने झीलों को पारदर्शी  कांच की चुनरी   उढाई   

मति  मेरी  देख- देख चकराई 

सड़कें धुली- धुली  क्षीर से  हिम रजत से पर्वतों  के ढके  बदन  

उज्जवल ,धवल चांदी उबटन  से लिपटे हों  जैसे  उनके   वदन  

किरणों   ने मस्तक जो चूमा उनका   रवि की आँखें चौंधियाई 

मति मेरी देख देख चकराई 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 14, 2013 at 7:00pm

हार्दिक आभार श्याम नरेन् जी 

Comment by Shyam Narain Verma on January 14, 2013 at 5:34pm

बधाई इस प्रस्तुति पर ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 14, 2013 at 4:55pm

आदरणीय गणेश जी आपका हार्दिक आभार 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 14, 2013 at 4:14pm

दृश्य को काव्यात्मक अभिव्यक्ति देने हेतु बधाई आदरणीया ।

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