बिन बुलाये आ जाती हैं
कहने पर कहाँ जाती हैं
और हम भी दिन- रात
सोते- जागते
उठते-बैठते
उन्ही को याद करते हैं
उन्ही के बारे में सोचते हैं
उनके बिन जैसे जीना मुहाल है
हमारे पास वक़्त नहीं है
और वो ठहरे फ़ुरसतिया
फिर भी कौन ऐसा है
जो नहीं करता उनकी खातिर
आखिर हैं तो अपनी ही न
छोड़ भी तो नहीं सकते
जीने के लिए वही तो वजह है
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कितनी अजीज होती हैं न !
ये "परेशानियाँ"
संदीप पटेल "दीप"
Comment
आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी सादर प्रणाम
आपकी सराहना पा कर मन प्रसन्न हो उठा है
स्नेह और आशीष यूँ ही बनाए रखिये आपका बहुत बहुत आभार
बढिया ..
तहे दिल से शुक्रिया आपका भाई अरुण जी रचना को पढने और सरहाने के लिए
संदीप भाई वाह बहुत ही खूबसूरती से बयां किया है आपने.
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