============ग़ज़ल =============
उड़ा कर छत हवा जब जब करे जाया पसीने को
गरीबी कोसती फिरती है तब सावन महीने को
बफा करने के बदले बेबफाई जब मिली यारो
बढ़ा दर्द-ए जिगर हद से नहीं आराम सीने को
मेरे हमराज मुझको इक शराबी मान बैठे हैं
सजा कर रख लिया हमने जो खाली आबगीने को
इलाहबाद जाकर पापियों ने पाप यूँ धोये
हुई गंगा वहाँ मैली बचा पानी न पीने को
क्या सूरत है क्या सीरत है क्या है तकदीर पत्थर की
उसे मालूम हो जिसने तराशा इस नगीने को
मचल कर जो समंदर में बड़े तूफ़ान लाती हैं
वही मौजें चलाती हैं जवानी के सफीने को
उजाले बांटने को दीप जलता आग पी पी कर
मैं नफरत पी रहा हूँ "दीप" की मानिंद जीने को
संदीप पटेल "दीप"
Comment
आदरणीय आरती जी सादर
आपका बहुत बहुत शुक्रिया और सादर आभार इस हौसलाफजाई के लिए
आदरणीय नादिर खान साहब सादर
आपको ग़ज़ल के ये अशआर पसंद आये और आपसे दाद मिली
आपका बहुत बहुत शुक्रिया
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
आदरणीय गणेश बागी सर जी सादर प्रणाम
क्षमा चाहता हूँ इतने बिलम्ब में जबाब देने के लिए
मतले में गरीबी इसीलिए कहा क्यूंकि लोग अक्सर गरीबी को कोसते हैं लेकिन बेचारी गरीबी का इसमें क्या दोष इसीलिए
और हाँ जहां तक मेरा ज्ञान है क्या को गिराया जा सकता है
मैं और किसी की आस्था को ठेस ????
शायद लेखन में दोष है कहीं मेरे संभवतः मैं इसमें जल्द ही सुधार करने का प्रयास करूँगा
आपका बहुत बहुत शुक्रिया और सादर आभार सर जी
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये सादर
बहुत खूब संदीप जी..बधाई स्वीकारें..
मचल कर जो समंदर में बड़े तूफ़ान लाती हैं
वही मौजें चलाती हैं जवानी के सफीने को
उजाले बांटने को दीप जलता आग पी पी कर
मैं नफरत पी रहा हूँ "दीप" की मानिंद जीने को
क्या बात है, बहुत उम्दा बात कही आपने बधाई ...
मतला बरबस ही आकर्षित करता है, पर गरीबी कोसती है ? यह बात कुछ बन नहीं रही |
//इलाहबाद जाकर पापियों ने पाप यूँ धोये
हुई गंगा वहाँ मैली बचा पानी न पीने को//
यह शेर एक तरह से आस्था का मज़ाक उड़ाता लग रहा, फिर भी मिसरा उला का समर्थन मिसरा सानी नहीं कर रहा, ऐसा लग रहा है जैसे वहां के लोग पीने के पानी हेतु गंगा जल पर ही निर्भर है |
//क्या सूरत है क्या सीरत है क्या है तकदीर पत्थर की//
क्या ...क्या को गिराकर पढ़ा जा सकता है ?
//मचल कर जो समंदर में बड़े तूफ़ान लाती हैं
वही मौजें चलाती हैं जवानी के सफीने को //
बढ़िया शेर, बधाई हो |
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