झूठ सुहाना होता प्रियवर
सबके ही मन भाता है
ऐसी है यह लिपि अनोखी
हर भाषा में चल जाता है
झूठ धर्म इतना समरस है
हर देश में रच-बस जाता है
समता का संदेश सुहावन
जन-जन में फैलाता है
झूठ जानती केवल अपनाना
नहीं किसी को ठगती है
सातों जन्म निभाती सुख से
वफा हमेशा करती है
झूठ तो एक भोली कन्या है
जो चाहे मन बहलाता है
जब चाहे जी अपनाता इसको
जब चाहे जी ठुकराता है
झूठ रसीला इक भोजन है
हर लीवर इसे पचाता है
हर निराश आंखों में आशा
का सागर भर जाता है
झूठ सहायक की भाभी है
अधिकारी की सजनी है
व्यवसायी की पुत्रवधु सम
नेताजी की पत्नी है
स्वर्गलोक की जिज्ञासा यह
नर्क में यह मनभजनी है
पाताल लोक में हर्ष का कारण
धरा पर इससे रजनी है
इसकी महिमा का गुणगान करे जो
हर सुख वह नर पाता है
अंत काल में दान-पुण्य कर
चंदन की चिता सजाता है
करे ध्यान जो सत्य का हरदम
वो अविवेकी, अविचारी है
रस विहिीन, मूढ़ कुबुद्धि
उसकी मत गई मारी है
सत्य का जो आश्रय लेता है
संताप से वह घिर जाता है
बन दरिद्र, भिक्षुक, दुखी जन
बिन चिता के ही जल जाता है
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
उत्तम अति उत्तम रचना राजेश जी !!!!!!!!!!!!!!!!!
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