कहो दर्द के देव तुम्हारे
चौबारे क्यों हमें डराय.. .
उदयाचल का
कोई जादू
कंगूरों पर
चल ना पाय
**कल जोड़े
भयभीत किरण भी
पल-पल काया
खोती जाय
पड़े तीलियों
के भी टोंटे
झूठे दीपक कौन जलाय ?
कहो दर्द के.....................
रोटी-बेटी
पर चिनगारी
रोज पुरोहित
ही रख आय
उलटा लटका
सुआ समय का
बड़े नुकीले
सुर में गाय
हर फाटक पर
जड़कर ताले
सन्नाटा खुलकर बतियाय ?
कहो दर्द के.....................
कलश-फूल भी
सहमे-दुबके
ताल-मंजीरे
बज ना पाय
गलते भावों
की रसरी भी
विषम बोझ यह
सह ना पाय
बेफिक्री की
घास कट गई
शबनम अब किस पर इतराय ?
कहो दर्द के.....................
अधर बिलखते
थाली पाकर
कौर कहां से
मुंह में जाय
हर चेहरे पर
धंसा मुहर्रम
सोलह आने
धमक डराय
गर्द बहुत
हमने थी झाड़ी
मन से **उख-बिख पर ना जाय ?
कहो दर्द के.....................
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
संदर्भानुसार प्रयुक्त शब्द
**कल जोड़ना- हाथ जोड़ना, **उख-बिख- बेचैनी
Comment
आदरणीय रक्ताले जी, महिमा जी एवं राम शिरोमणि जी आप सबका हार्दिक आभार
पड़े तीलियों
के भी टोंटे
झूठे दीपक कौन जलाय ?...........वाह! बहुत सुंदर.
आदरणीय राजेश जी सादर, बहुत बढ़िया यह नवगीत रचना पंक्ति पंक्ति बार बार पढ़ने को मन कर रहा है. हार्दिक बधाई स्वीकारें.
वाह !! बहुत ही अलग प्रस्तुति .. नए बिम्बों के साथ अंतस को भिंगो गयी
उत्तम रचना हार्दिक बधाई मित्र !!!!!!!
आदरणीय प्राची जी, मेरी पिछली रचना 'सदभावों की थोड़ी खुशबू' पर दी गई आपकी प्रतिक्रिया ने ही अपना रंग दिखाया है, कोशिश की है कि थोड़ा समय देकर, संभल-सोचकर लिखूं , आगे सब तो गुरुजनों के हवाले है, सादर
आदरणीय साजेश जी,
एक बिलकुल ही अलग से विषय पर लिखी गयी बहुत ही समृद्ध रचना है ये...बहुत सुन्दर शब्द, भाव, प्रवाह, बिम्ब, शब्द- चित्र,
बहुत खूबसूरत.
हार्दिक बधाई .
आदरणीय सौरभ जी,राजेश कुमारी जी, संदीप जी, प्रवीण जी एवं निकोर साहब, आप सबकी उपस्थिति एवं रचना पर साझा किए गए विचार हमेशा ही मुझे ऊर्जा प्रदान करेंगें, स्नेह बनाए रखें, सादर
इतनी आत्मीय लगी है आपकी यह प्रस्तुति कि मैं पंक्ति-दर-पंक्ति बार-बार गुनगुना रहा हूँ. बिम्बों को आपने जिस सुन्दरता से पिरोया है, उनको जिस सुन्दरता से अर्थ दिये हैं आपने कि सारा कुछ विस्मित-सा कर रहा है, राजेश भाईजी.
एक अद्भुत और हर तरह से समृद्ध रचना है. वाकई बहुत दिनों बाद कोई नवगीत पढ रहा हूँ जो मुझे बहाये ले जारहा है. पिछला इसी तरह का नवगीत भी संभवतः आपही का था, राजेशभाई.
इन पंक्तियों पर क्या कहूँ -
गलते भावों
की रसरी भी
विषम बोझ यह
सह ना पाय
बेफिक्री की
घास कट गई
शबनम अब किस पर इतराय ?
लेकिन सम्पूर्ण नवगीत ही कई-कई स्तरों पर अपनी धमक बना रहा है. आपकी गंभीर कोशिश और उन्नत रचनाधर्मिता को मेरा सादर नमन.
शुभ-शुभ
रोटी-बेटी
पर चिनगारी
रोज पुरोहित
ही रख आय
उलटा लटका
सुआ समय का
बड़े नुकीले
सुर में गाय
हर फाटक पर
जड़कर ताले
सन्नाटा खुलकर बतियाय ----खूबसूरत शब्द संयोजन ,भावोँ से गुंथी बेहतरीन रचना बहुत अच्छी लगी
बेहतरीन नज्म हुई साहब मजा आ गया वाह
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