इंजिनियर रामबाबू अपनी बेटी दिव्या को एयरपोर्ट छोड़कर अभी-अभी घर लौटे थे। दिव्या ने IIM से एमबीए किया था। एक प्रतिष्ठित कंपनी में बतौर मैनेजर लाखों कमा रही थी। रामबाबू को अपनी बेटी पर खासा गर्व था। नातेदारों से लेकर जान-पहचानवाले सभी लोगों से बात-बातपर वो दिव्या का ही जिक्र छेड़ते थे। अन्य के मुकाबले आर्थिक स्थिति काफी अच्छी होने के कारण रिश्तेदारी में भी उनकी विशेष इज्जत थी। आज छुट्टी थी और कोई खास काम भी नहीं था सो रामबाबू आराम से पलंगपर पसर गये। लेटे-लेटे ही उन्होंने अपनी पत्नी शर्मिला से चाय बनाने को कहा और फिर टीवी चालू कर समाचार देखने लगे।
समाचार देखते-देखते अचानक ही उन्हें अपनी बहन सरिता के बेटे राजीव का ध्यान आया जिसने प्रशासनिक सेवा की प्रारंभिक और मुख्य, दोनों ही परीक्षाएँ पास कर लीं थी और साक्षात्कार भी दे चुका था। अंतिम परिणाम आज-कल में ही आनेवाला था। रामबाबू ने झट से टीवी म्यूट किया और सरिता को फोन लगाया। थोड़ी देर औपचारिक बातें करने के बाद रामबाबू ने सरिता से राजीव के रिजल्ट के बारे में पूछा। सरिता ने थोड़ी निराश आवाज में उत्तर दिया - "नहीं भैया, नहीं हो पाया। राजू (राजीव) की मेहनत में तो कोई कमी नहीं थी। दिन-रात एक कर रखा था उसने। खाने-पीने का भी होश नहीं रहता था। लेकिन दो-तीन नंबरो के अंतर से बात बिगड़ गयी। अभी कल ही तो रिजल्ट आया है। बेचारा बहुत टेंशन में है। मोबाइल बंद कर कमरे में लेटा है। बात कराऊँ क्या?"
"नहीं-नहीं रहने दो। अभी परेशान होगा। मैं बाद में खुद फोन कर के उसे समझा दूँगा। लगा हुआ है तो कहीं न कहीं तो होना ही है। उससे बस इतना कहना कि घबराए नहीं, अच्छा" इसके बाद थोड़ी-बहुत और बातें करने के बाद रामबाबू ने फोन रख दिया।
तबतक शर्मिला भी चाय लेकर आ गई।
"क्या हुआ? राजीव का तो रिजल्ट आनेवाला था न" उसने आते ही पूछा।
"वो नमकीन बिस्किट भी ले आना जो कल लाए थे" रामबाबू ने चाय का कप लेते हुए कहा। फिर बोले - "नहीं हुआ। रिजल्ट कल आया है। सरिता बता रही थी कि सेलेक्ट न हो पाने के कारण थोड़ा परेशान है" फिर धीरे से बुदबुदाए - "हो जाता तो हमारे ही कान काटने लगता"... और चाय पीने लगे।
मेरी पिछली लघुकथा: बंद
Comment
प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय शुभ्रांशु जी.......
पारिवारिक स्पर्धा की एक मर्मस्पर्शी कहानी.
हार्दिक शुभकामनाएँ
आदरणीय गुरुदेव, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। आपका स्नेह तो सदा प्रोत्साहित करता है। जो कुछ भी देखता अथवा अनुभव करता हूँ उसे शब्दों में ढालने की कोशिश करता हूँ। नजदीकी खून के रिश्तों में चल रही खींचतान मन को बहुत दुखी कर देती है। जब अपनों का ही रवैया ऐसा हो तो अपनों और गैरों में फर्क ही क्या रह जाएगा। हाँ ये भी सच है कि सभी लोग एक से नहीं होते। कई जगह सच्चा प्रेम भी होता है।
कहानी को सराहने के लिए आपका पुनः हार्दिक आभार......
अजीतेन्दु जी.... !!!! .. बहुत सुन्दर कथा. उससेभी सुन्दर आपकी प्रवाहमयी किस्सागोई.. वाह-वाह !
रिश्तेदारियों और संबंधों के बीच व्यापे मनोविज्ञान को जिस शिद्दत से आपने उभारा है. वह आपकी सूक्ष्म परख का परिचायक है. यह सही है कि एक बेटी के बाप को किन-किन दशाओं से गुजरना होता है. यह गुजरना तथा अपने को सामाजिक रूप से संयत रख पाने के क्रम में हुई ज़द्दोज़हद उसे क्या से क्या होने, सोचने और बनने देती है , इस सचाई की बहुत ही सुगढ़ प्रस्तुति हुई है.
यदि यही रामबाबू किसी पुत्र के पिता होते और इस मनोदशा से गुजरते होते तो हम आप उन्हें ईर्ष्यालू या सही कहिये अत्यंत घटिया इन्सान कहते. चूँकि आपकी कथा इन भाई-बहनों के पार्श्व के पारस्परिक संबन्धों की चर्चा नहीं करती तो एक संदेह का लाभ रामबाबू के किरदार को अनायास मिल जाता है.
आपकी संभावनाओं को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ.. .
आदरणीया प्राची दीदी, आपका कहना बिल्कुल सही है। आजकल लोग हर चीज को स्टेटस सिंबल से जोड़कर देखते हैं। इसके अलावा "सिर्फ मैं आगे रहूँ" ये भावना भी आज समाज में बड़ी खतरनाक ढंग से बढ़ी है। संभवतः आज के व्यवसायिक माहौल का प्रभाव हो।
आपको लघुकथा पसंद आई, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
बच्चों की सफलता असफलता को भी अपने अभिमान का विषय समझने वाले लोंगों का क्या किया जाए?
अपने ही परिवार में दुसरे के बच्चों की असफलता पर संतोष पाने वाले, और उनकी सफलता पर स्वयं हो हीन समझने की कुछ वयस्कों में व्याप्त मानसिकता कितनी गलत है..
ऐसे ही भावों को उजागर करती इस लघुकथा पर बधाई प्प्रिय कुमार गौरव जी
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