(१) ज्वलंत प्रश्न
जब फलदार वृक्ष ही
बन जाएं नरभक्षी,
चूसने लगें रक्त,
तब क्या करे पथिक,
किधर ढूँढे छाँव, शीतलता,
कहाँ करे विश्राम,
कैसे जुटाये भोजन
जेठ की तपती राहों में।
(२) एक घटना
सुबह कुछ फूल देखे थे,
आकार में बड़े-बड़े,
चटख रंगोंवाले, भड़कदार,
मन किया कि घर ले आऊँ,
जाँच की तो पाया
सारे के सारे जहरीले थे।
(३) कैसी बारिश
सुना है कल बारिश हुई थी,
खूब गरज-गरजकर,
लेकिन
चौराहे पर का ठूँठ तो
वैसे का वैसा ही
सूखा, उदास खड़ा है।
(४) खूबसूरत
धुँधलके में बड़ा
खूबसूरत दिखता था वो,
लेकिन
उजाले में देखा तो जाना,
उसका चेहरा भी
दागदार था।
(५) शांति
शांति मेरे पास थी,
थोड़ी सी ही सही
मगर थी,
लेकिन मैं लालची
जरा सी और ढूँढने लगा,
इसी चक्कर में
वो भी कहीं गिर गयी।
Comment
बहुत-बहुत आभार आदरणीय राम शिरोमणि पाठक जी.....
आपका हार्दिक आभारी हूँ आदरणीय संजय मिश्रा सर......
आदरणीय गुरुदेव, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद....इन क्षणिकाओं को रचते समय जो मन में भाव आ रहे थे उन्हें हूबहू लिख दिया है....
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय केवल प्रसाद जी...
सुन्दर क्षणिकाएं भाई कुमार गौरव जी... हार्दिक बधाई स्वीकारें.
सुन्दर क्षणिकाएं भाई कुमार गौरव जी... हार्दिक बधाई स्वीकारें.
भाई अजीतन्दु जी, बहुत ही सघन प्रयास हुआ है. क्षणिकाओं की सुन्दरता विचार और भाषागत कसावट होती है. तनिक सा शाब्दिक विस्तार पाठक के मस्तिष्क की गणन और गुनन प्रक्रिया को बाधित करती है. यही कारण है कि कई पाठक समान्यतया क्षणिकाओं को दुरुह भी मानते हैं. लकिन जो है सो यही है.. ! .. :-)
आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
कुमार गौरव जी सुप्रभात! आपकी क्षणिकाएँ बहुत-बहुत प्यारी हैं! थोड़ी उदास सी लेकिन परिवेश के अनुसार बहुत अच्छी है!
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