इस मलिन बस्ती से,
दूर जाना चाहता हूँ !
सब स्वार्थ से घिरे है ,
थोड़ा आराम चाहता हूँ !
ऐसा नहीं कि मै कमज़ोर हूँ ,
इनसे नहीं लड़ सकता !
अपनत्व दिखाते है फिर भी ,
चलते हैं चाल कुटिलता !
सोचा नहीं था मैंने कभी ,
हो जाऊंगा इतना हताश !
जब अपनों ने किया छल ,
तो करूँ किसपे विश्वास !
मोह माया से घिरा मै ,
लगाये बैठा था आस!
घर,परिवार,धन है फिर भी ,
एकांत बैठा हूँ ,होकर निराश!
उम्र का आखिरी पड़ाव है ,
नहीं शेष कोई काम !
शरण में ले लो हे ईश्वर ,
बस कहूँगा राम-राम!
राम शिरोमणि पाठक "दीपक"
मौलिक /अप्रकाशित
Comment
इतनी घोर निराशा.भावाभिव्यक्ति तो ठीक है किन्तु ऐसी मनोदशा ठीक नहीं. भावों की अभिव्यक्ति पर बधाई स्वीकारें.
उम्र का आखिरी पड़ाव है ,
नहीं शेष कोई काम !
शरण में ले लो हे ईश्वर ,
बस कहूँगा राम-राम!.......??
//उम्र का आखिरी पड़ाव है ,
नहीं शेष कोई काम !
शरण में ले लो हे ईश्वर ,
बस कहूँगा राम-राम!//
प्रथम पहर में संझा की बात क्या बात है ...राम राम भाई जी ।
badhai ho aap ko ek acchi kavita ke liye
अच्छे भाव मुखरित हुए हैं बंधू बधाई हो आपको
युवा कवि के आयु विशेष की प्रच्छन्न मनोदशा के अनुरूप रचना.. .
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