मृतप्राय शिराओं में बहता हुआ
संक्रमण से सफ़ेद हो चुका खून
गर्म होकर गला देता है
तुम्हारी रीढ़ !
और तुम -
-अपनी आत्मा पर पड़े फफोलो से अन्जान
-रेंगते हुए मर्यादा की धरती पर
प्रेम कहते हो –
एक चक्रवत प्रवाहित अशुद्धि को !
तुम्हारी गर्म सांसों का अंधड़
हिला देता है जड़ तक ,
एक छायादार वृक्ष को !
और फिर कविता लिखकर
शाख से गिरते हुए सूखे पत्तों पर ,
तुम परिभाषित करते हो
प्रेम को !
जबकि तुम्हारी भी मंशा है
कि ठूंठ हो चूका पेड़ जला दिया जाए ,
तुम्हारी वासना के चूल्हे में ,
जिस पर पकता रहेगा
एक निर्जीव सम्बन्ध !
प्रकृति की मनोरम गोद में
निषिद्ध क्रीड़ाएँ करते हुए ,
तुम प्रेम कहते हो उस घाव को
जिसमें से बह रही है पवित्रता ,
मवाद बनकर !
और नीला पानी एक सदानीरा नदी का
बनने को है –
एक गंधाता दलदल !
जो तुम्हारी ही नाक से ऊपर बहेगा एक दिन !
कठोरता और लिजलिजेपन के बीच का अंतराल
प्रेम नही कहलाता !
प्रेम वो है -
-जो दिख रहा है
अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत
और अंततः
भावनाओं के खून से सने
मांसल लोथड़ों के बीच पिसते हुए भी
जीवित रहेगा ,
तुम्हारे मुँह पर तमाचा बन कर !
........................................... अरुन श्री !
Comment
आदरणीय सौरभ सर , मेरा ये प्रयास आपके मार्गदर्शन बिना न निखर पाता ! आपका धन्यवाद ! रचना के भावों का मान रखने के लिए भी ! सादर !
प्रेम की व्यापकाता को क्षणिक भावावेश की वेदी पर रखना पाप है. इस तथ्य से को बखूबी साझा करती रचना के लिए अरुणभाई हार्दिक बधाई. रचना के शब्द भेदते हुए हैं और संप्रेषणीयता प्रहारक तथा सोद्येश्य है.
शुभेच्छाएँ.. .
राजेश कुमारी मैम , सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद !
राजेश झा सर , आप इस कविता से इतने प्रभावित हुए , सहमत हुए और सराहना की इसके लिए आपका अत्यंत आभार !
अरुण श्री वास्तव जी कितनी गहन मन मंथन करती पंक्तियों के माध्यम से सच्चे प्रेम और वासना के फर्क को परिभाषित किया है बहुत-बहुत अच्छा लिखा है बधाई आपको रचना अपना संदेश देने में सफल है
क्या बात है अरूण जी, इतनी सुंदर रचना है कि क्या कहूं जैसे झकझोर कर कहती हो कि तुम जिसे जानते हो वह प्रेम मैं नहीं मेरा अक्स उससे बहुत अलहदा भी है, बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर
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