कुरबतों में खुश न थे, फुर्क़तों का ग़म भी नहीं,
पहले जैसे वो अब नहीं, पहले जैसे हम भी नहीं ।
बात जो लब पर है रुकी, जान शायद लेकर रहे,
भूलने का दिल भी नहीं, कह दे इतना दम भी नहीं ।
फिर उदासी बढ़ने लगी, शाम से पहले क्या करें,
इक यहाँ तुम भी नहीं, दूसरे मौसम भी नहीं ।
इस परेशां से हाल में, कशमकश अपनी क्या कहें,
दिल न रोता ऐसा नहीं, आँख लेकिन नम भी नहीं ।
क्या वजह जो हम आपके, उम्र भर ना काबिल रहे,
हम भले रुस्तम नहीं, पर किसी से कम भी नहीं ।
2122 2212, 2122 2212
Comment
हरजीत साहब, बहुत बधाई इस गजल पर
श्री हरजीत जी पूरी ग़ज़ल ... हर शेर बहुत सुन्दर शानदार है हार्दिक बधाई !!
बहुत खूब आदरणीय
ढेरो दाद क़ुबूल फरमाएँ
ग़ज़ल के पहले मिसरे और आख़िरी मिसरे पर पुनः गौर फरमाएं
भाई हरजीत ! मैं यह जरूर तलाशने की कोशीश कियी कि अच्छी लगी क्यूँ ? समझ में नहीं आया मगर पूरी ग़ज़ल का असरार पूरा है और अच्छी बनी है . बधाई .
आदरणीय खालसा साहब ग़ज़ल अच्छी कही है , दाद कुबूल करें ।
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